*वासना को जड़ से समाप्त करें*
===================
“ओम् नमो भगवते वासुदेवायः”
मनुष्य के चरित्र में कई नकारात्मक गुण होंते हैं लेकिन शायद इसमे किसी को कोई संदेह नही होगा कि काम वासना उनमे सबसे खतरनाक है| इसकी गंभीरता इससे भी बढ़ जाती है कि वासना अकेले दूसरे नकारात्मक गुणो को उत्पन्न करती है। इसलिए मनुष्य के लिए आत्म संयम तब तक संभव नही है कि जब तक काम वासना के ऊपर नियंत्रण न प्राप्त कर लिया जाए, क्योंकि अगर दूसरे दुर्गुणों जैसे क्रोध, अहंकार के ऊपर नियंत्रण कर भी लिया जाए और मन में वासना शेष रहे तो दूसरे दुर्गुण दुबारा उत्पन्न हो जायेंगे। आत्म संयम के लिए इस खतरनाक दुर्गुण वासना पर नियंत्रण आवश्यक है। वासना को जड़ से समाप्त करने लिए हमे इसके जड़ को जानना आवश्यक है।
वैसे काम शब्द का प्रयोग विस्तृत अर्थ में होता है, कोई मनुष्य के मन में अगर कोई भौतिक इक्षा हो तो वह भी काम की परिभाषा में ही आता है, लेकिन ईमानदारी से अपने अधिकार के अधीन अपनी इक्षा पूर्ति कभी गलत नही होता और लगभग सभी मनुष्यों में कोई न कोई इक्षा होती है| लेकिन यह काम जब किसी मनुष्य में लैंगिक वासना ,सस्ती सामाजिक प्रतिष्ठा या आसान धन बिना मिहनत किए की कामना में परिवर्तित हो जाए तो यह बहुत ही खतरनाक हो जाता है| इस प्रकार की मनः स्थिति में मनुष्य अपनी वासना की पूर्ति के लिए हमेशा विध्वंशकारी मार्ग का चयन करता है जिससे समाज की बहुत क्षति होती है।
*प्रकृति वासना का श्रोत है*
किसी में मन में वासना कहीं आसमान से नही टपक जाती बल्कि इसी प्रकृति से आती है| गलत जीवन पद्धति, गलत आदत और गलत शिक्षा से इस खतरनाक दुर्गुण का मनुष्य के मन में आगमन होता है। इस प्रकृति के सभी पदार्थ तीन गुणो से युक्त होते हैं । उन तीन गुणो में “रजस गुण” वासना का जन्म स्थान है। रजस गुणो से युक्त प्रकृति के वस्तुओं के संपर्क में आने से मनुष्य में वासना जैसे दुर्गुण का जन्म होता है।यह तथ्य स्पस्ट रूप से भगवान श्री कृष्ण के द्वारा वर्णित है:-
*श्रीभगवानुवाच*
*काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।*
*महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ॥*
भावार्थ : श्री भगवान बोले- रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम और क्रोध है। यह (काम या वासना) कभी तृप्त नही होता और पाप युक्त है। ऐसा जान लो कि यह काम वासना मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है।
ऊपर के श्लोक में यह स्पस्ट विदित हैं कि वासना और क्रोध दोनों प्रकृति में स्थित रजस गुण से उत्पन्न होते है। जो मनुष्य राजसिक जीवन पद्धति अपनाते हैं उनमे वासना जैसे गुण के उत्तपन्न होने के अवसर ज्यादा होते हैं
तीन गुण सत्व, रजस और तमस प्रकृति के सभी पदार्थों में पाए जाते हैं, मनुष्य के भोजन से लेकर वस्त्र और यहाँ तक हवा पानी तक में इन गुणो का वास होता है। मनुष्य के कुछ कार्य कलाप जिन्हें रजस गुण से पहचाना जा सकता है इस प्रकार है।
मांसाहार,तीखे आदि भोजन
शराब, धूम्रपान, या ड्रग का सेवन उत्तेजित या कामुक माहौल या पदार्थों की संगती।
कृत्रिम आरामदायक वातावरण का अधिक उपयोग और प्रकृति वातावरण से दुरी।
शारीरक मेहनत, योग या व्यायाम की कमी।
भौतिक सुख की ओर ज्यादा रुझान।
भौतिकवाद विचारधारा का पालन
यह कुछ साधारण उदाहरण हैं जो राजसिक गुणो से युक्त जीवन पद्धति को पारिभाषित करते हैं| जो मनुष्य ऊपर उल्लेखित जीवन पद्धति में लिप्त होते हैं उनमे वासना उत्पन्न होने की संभावना अधिक होती है|
इस तथ्य का प्रतिपादन विज्ञान की विभिन्न धाराओं में भी किया गया है| मनोविज्ञान में सामाजिक जीवन का मनुष्य के ऊपर प्रभाव के बारे में विस्तृत वर्णन हैं जहाँ यह सिद्ध किया गया है कि आस पास के माहौल का पूरा प्रभाव मनुष्य के ऊपर पड़ता है| सामाजिक शास्त्र में इस इस प्रकार के सिद्धांत हैं| कई दूसरे शास्त्र, कवितायेँ और रचनाओं में इस तथ्य का वर्णन है| हममे से शायद ही कोई होगा जिसने यह पंक्ति नही पढ़ी हो:
“संगत से गुण होत है संगत से गुण जात”
यह कहावत तो गली गली में प्रचलित है|
बुरी संगत का असर बुरा ही होता है। ओर अच्छी संगत का असर अच्छी होती है।
वासना उत्पन्न कैसे होती है?
----------------------------
वासना उत्पन्न होने का मूल कारण है सोच। सोच ही अच्छे या बुरे विचारो का आधार है। बुरे व नकरात्मक विचार ही वासना को जन्मदात्री है। यह तो ठीक है है प्रकृति में चारो ओर और हर पदार्थ में तीन गुणो का वास है और रजस गुण में वासना का वास होता है| लेकिन वातावरण से यह मनुष्य के मन तक कैसे आता है?
जब कोई मनुष्य रजस गुण से युक्त वातावरण जैसे अश्लील, कामुक, उत्तेजित, हिंसा युक्त वातावरण में रहता है वैसे कार्यों को देखता है, वैसे शब्दों को सुनता है और महसूस करता है तो उसकी इन्द्रियां, मन और बुद्धि उसमे लिप्त होते हैं| वह उन घटनाओं या उन पदार्थों के बारे में बार सोचता है जिससे उसके मन में उनके लिए इक्षा जागृत होती है, यह इक्षा जब एक हद से बढ़ जाती है तो यह वासना का रूप लेती है| यह तथ्य भी श्रीमद भगवद गीता में करुणामय भगवान के श्रीमुख से वर्णित
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥
भावार्थ : विषयों का(भौतिक पदार्थों) का लगातार चिन्तन करने से [वैसे मनुष्य की] उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना(वासना) उत्पन्न होती है और कामना(वासना) में विघ्न पड़ने से (कामना पूरी नही होने से) क्रोध उत्पन्न होता है॥
यह पूर्ण स्पस्ट है कि जब मनुष्य अश्लील, कामुक, उत्तेजना युक्त, हिंसा जैसे वातावरण में समय व्यतीत करता है, अपने इन्द्रियों और मन को को लिप्त करता है, तो उसमे वैसे भाव उत्पन्न होते हैं| वह उन अश्लील, कामुक, उत्तेजित यह हिंसा युक्त वस्तुओं या घटनाओं के बारे में सोचता है और उनमे फिर वैसे ही गुण आने लगते हैं| अगर समय रहते ऐसा मनुष्य खुद के ऊपर नियंत्रण नही करता और लगातार वैसे वातावरण में जाता है तो उसमे वासना(या उत्तेजन या हिंसा की भावना) उत्पन्न होगी ही| यह तो कोई भी बता सकता है कि अगर एक आदमी शराब खाना, जुआ खाना, या कोठे पर बैठा हो तो उसमे भक्ति के भाव तो नही ही आएंगे | शराबखाने में, जुयेखाने में, कोठे पर भगवान का भजन करने तो नही जाते लोग|
उपाय क्या है?
कारण तो बता ही दिया| अगर कोई इन्हें ईमानदारी से समझ ले तो उपाय भी खोज लेगा| कुछ उपायों को मैं यहाँ सारांश में वर्णित करता हूँ:
सबसे पहले तो हमे निराश नही होना चाहिये और सत्य को जानने का प्रयास करना चाहिये| इससे संबंधित सत्य यह है कि वासना, क्रोध आदि दुर्गुण प्रकृति कसे ही उत्पन्न होते है, चूँकि जीव का शरीर, मैं और बुद्धि इस प्रकृति के भाग हैं इसलिए काम(वासना) ही नही बल्कि प्रकृति के हर एक बदलाव का प्रभाव मनुष्य पर पडता है| एक खास जीवन पद्धति जिसमे रजस गुणो की प्रधानता हो जाती है तब वासना जैसे गुणो का जन्म होता है| अगर हम उस जीवन पद्धति को सही कर लें तो इन दुर्गुणों को बहुत आसानी से समाप्त किया ज सकता है|
रोकथाम ही उपाय है।
यह प्रक्रिया शारीरिक रोगों के संदर्भ सार्थक रूप से प्रयोग की जाती है| वासना भी तो शरीर और मानसिक रोग ही है और यह नियम यहाँ पर लागू होता है| जो मनुष्य यह चाहता है कि उसमे वासना जैसे दुर्गुण उत्पन्न न हों उसे वैसी जीवन पद्धति से बचना चाहिये जिसमें रजस गुणो की अधिकता हो| अश्लील, उत्तेजित आदि वातावरण से बचना चाहिये|
सात्विक जीवन पद्धति अपनाएं
-------------------------------
जो आत्म संयम के इक्षुक हैं और वासना जैसे गुणो कसे बचना चाहते हैं उन्हें अपने जीवन में सात्विक गुणो को बढ़ाने का प्रयास करना चाहिये सात्विक गुणो के बढ़ने से रजस या तमस गुण अपने आप ही नियंत्रित हो जाते हैं| तीन गुणो का पूर्ण विवरण पहले दिया जा चूका है, औरु उनका विस्तृत विवरण तो यहाँ संभव नही है लेकिन सारांश में निन्म बातों को अपनी दिनचर्या में शामिल करके सात्विक गुणो को बढ़ाया जा सकता है
१.अपनी नकारात्मक ओर तामसिक रुपी सोच पर नियंत्रण रखें।
२. इस सोच ओर कृत्य का विरोध करें।
३.आस -पास का वातावरण वासना रहित करने में अग्रसर हो। ४.बुरे लोगों की संगत से दूर रहे।
५. समाज, संस्थानों को बच्चों को इसके प्रति सजग रहने के लिए समुचित जानकारी प्रदान करने के प्रयत्न करने चाहिए।
६. आम नागरिक भी अपनी जिम्मेदारी समझने का प्रयत्न करना चाहिए।
७. शुद्ध, ताजा और तुरंत पका हुआ भोजन करें।शराब, धूम्रपान पर नियंत्रण करें| ड्रग से बचें|
८. घर को यथा संभव साफ़ सुथरा रखने का प्रयास करे|
९. अगर संभव हो तो प्रकृति वातावरण में अधिक से अधिक समय बिताए| प्रातःकाल योग या व्यायाम करें।
१०. अपने खाने, काम करने और सोने की दिनचर्या तो दुरुस्त करें|
११. कुछ अपना कुछ समय ईश्वर साधना, मंत्रोचार या शास्त्रों के अध्ययन में लगाएं
१२. सप्ताह में एक दो बार अपने परिवार के साथ मदिंर अवश्य जाएँ| मदिर सात्विक गुणो से युक्त होते हैं और वहां पर बिताया गया थोडा समय भी बहुत लाभकारी होता है|
१३. सात्विक गुण से युक्त मनुष्यों का साथ करें
१४. जीवन से कुछ समय निकालकर गरीबों, असहायों की सेवा करने का प्रयास करें| सेवा वह अमृत है जो अन्तःकरण को शुद्ध करता है और इससे अपार संतुष्टि एवं शांति प्राप्त होती है|
१५. अपने माता पिता, गुरु जन, ज्ञानी या अग्रजों का सम्मान करें| इससे मन शुद्ध एवं शांत होता है
और भी कई उपाय हैं जिसका पालन करके सात्विक गुणो में वृद्धि की जा सकती है| जो आत्म संयम के इक्षुक हंह उन्हें सात्विक गुणो में वृद्धि करने का प्रयास करना चाहिये|
2. जीवन में सकारात्मक विकल्पों का लक्ष्य बनायें
कभी कभी जीवन के लक्ष्य का सही निर्धारण नही होने से मनुष्य गलत आदतों के आदि हो जाते हैं| निराशा अपने आप में एक खतरनाक मनःस्थिति है और निराशा की स्थिति में मनुष्य बहुत कमजोर होता है और वह किसी भी दुर्गुण का शिकार हो सकता है|
हम यह जानते हैं कि सभी मनुष्य एक समान सक्षम नही होते है| एक जहाज पर सभी कैप्टेन तो नही हो सकते लेकिन फिर हर एक के लिए कुछ न कुछ करने को होता है, हम छोटे बड़े सभी रूप में अपने जीवन को सार्थक कर सकते हैं, समाज को कुछ न कुछ दे सकते हैं|
एक महान कवि कहा
अगर तुम एक पर्वत की चीड का पेड़ नही बन सकते
तो घाटी की एक झाडी ही बन जाओ
लेकिन बनो तो नदी किनारे की सबसे सुदर झाडी
अगर एक पेड़ नही बन सकते तो एक झाडी का छल्ला बन जाओ
अगर एक झाडी का छल्ला भी नही बन सकते तो एक घास ही बन जाओ
अगर मस्की(बड़ी मछली) नही बन सकते तो बास(एक छोटी मछली) बन जाओ
लेकिन बनो तो झील की सबसे सजीव मछली
...
...
बात आकार की नही , सफलता या विफलता की नही
तुम जो भी हो उसे श्रेष्ठ करो
बात इसकी नही की हम बहुत बड़ा या छोटा करते है, बल्कि यह कि हम अपने जीवन को कितना सार्थक कर पाते हैं खुद के लिए और समाज के लिए| इन सब बुराइयों का सामना करने के लिए हम सब को भी प्रयत्न करना चाहिए। यह केवल देश ,समाज की ही जिम्मेदारी नहीं है, हमें भी अपनी कर्तव्य समझकर देश समाज का हिस्सा होने का परिचय देना होगा।
इस संसार में सबके लिए करने के लिए कुछ न कुछ अवश्य होता है|
हम सब को अपने जीवन का लक्ष्य तय करने का प्रयास करना चाहिये| खाली समय में अच्छे शौक जैसे संगीत, कला, खेल,समाज सेवा जैसे कार्यों को अपनाना चाहिये| और अगर कुछ नही मिलता तो हम अपने माता पिता, दादा दादी के कार्यों में हाथ बटा सकते हैं| कई ऐसे सकारात्मक कार्य है जो मनुष्य के जीवन को सुंदर, सुखी और शांत बना सकते हैं| कहने का अर्थ है कि हमे जीवन से निराशा को दूर करने के प्रयास करना चाहिये और अच्छी आदतों को धारण करने का प्रयास करना चाहिये| अच्छे गुणों से आत्म संयम स्वतः ही प्राप्त होता है|
आत्म संयम मनुष्य के सुख का आधार है और सभी मनुष्यों को किसी न किसी प्रकार से अपने ऊपर नियंत्रण रखना चाहिये| अनियंत्रित चरित्र में दुर्गुणों का आगमन कभी भी हो सकता है|
आत्म संयम के कई पहलू हैं यहाँ पर हमने सिर्फ एक पहलू की बात की आगे के विवेचनो में दूसरे तथ्यों पर चर्चा करेंगे|
आशा है यह लेख उपयोगी होगा
“श्री हरि ओम् तत् सत्”
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“ओम् नमो भगवते वासुदेवायः”
मनुष्य के चरित्र में कई नकारात्मक गुण होंते हैं लेकिन शायद इसमे किसी को कोई संदेह नही होगा कि काम वासना उनमे सबसे खतरनाक है| इसकी गंभीरता इससे भी बढ़ जाती है कि वासना अकेले दूसरे नकारात्मक गुणो को उत्पन्न करती है। इसलिए मनुष्य के लिए आत्म संयम तब तक संभव नही है कि जब तक काम वासना के ऊपर नियंत्रण न प्राप्त कर लिया जाए, क्योंकि अगर दूसरे दुर्गुणों जैसे क्रोध, अहंकार के ऊपर नियंत्रण कर भी लिया जाए और मन में वासना शेष रहे तो दूसरे दुर्गुण दुबारा उत्पन्न हो जायेंगे। आत्म संयम के लिए इस खतरनाक दुर्गुण वासना पर नियंत्रण आवश्यक है। वासना को जड़ से समाप्त करने लिए हमे इसके जड़ को जानना आवश्यक है।
वैसे काम शब्द का प्रयोग विस्तृत अर्थ में होता है, कोई मनुष्य के मन में अगर कोई भौतिक इक्षा हो तो वह भी काम की परिभाषा में ही आता है, लेकिन ईमानदारी से अपने अधिकार के अधीन अपनी इक्षा पूर्ति कभी गलत नही होता और लगभग सभी मनुष्यों में कोई न कोई इक्षा होती है| लेकिन यह काम जब किसी मनुष्य में लैंगिक वासना ,सस्ती सामाजिक प्रतिष्ठा या आसान धन बिना मिहनत किए की कामना में परिवर्तित हो जाए तो यह बहुत ही खतरनाक हो जाता है| इस प्रकार की मनः स्थिति में मनुष्य अपनी वासना की पूर्ति के लिए हमेशा विध्वंशकारी मार्ग का चयन करता है जिससे समाज की बहुत क्षति होती है।
*प्रकृति वासना का श्रोत है*
किसी में मन में वासना कहीं आसमान से नही टपक जाती बल्कि इसी प्रकृति से आती है| गलत जीवन पद्धति, गलत आदत और गलत शिक्षा से इस खतरनाक दुर्गुण का मनुष्य के मन में आगमन होता है। इस प्रकृति के सभी पदार्थ तीन गुणो से युक्त होते हैं । उन तीन गुणो में “रजस गुण” वासना का जन्म स्थान है। रजस गुणो से युक्त प्रकृति के वस्तुओं के संपर्क में आने से मनुष्य में वासना जैसे दुर्गुण का जन्म होता है।यह तथ्य स्पस्ट रूप से भगवान श्री कृष्ण के द्वारा वर्णित है:-
*श्रीभगवानुवाच*
*काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।*
*महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ॥*
भावार्थ : श्री भगवान बोले- रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम और क्रोध है। यह (काम या वासना) कभी तृप्त नही होता और पाप युक्त है। ऐसा जान लो कि यह काम वासना मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है।
ऊपर के श्लोक में यह स्पस्ट विदित हैं कि वासना और क्रोध दोनों प्रकृति में स्थित रजस गुण से उत्पन्न होते है। जो मनुष्य राजसिक जीवन पद्धति अपनाते हैं उनमे वासना जैसे गुण के उत्तपन्न होने के अवसर ज्यादा होते हैं
तीन गुण सत्व, रजस और तमस प्रकृति के सभी पदार्थों में पाए जाते हैं, मनुष्य के भोजन से लेकर वस्त्र और यहाँ तक हवा पानी तक में इन गुणो का वास होता है। मनुष्य के कुछ कार्य कलाप जिन्हें रजस गुण से पहचाना जा सकता है इस प्रकार है।
मांसाहार,तीखे आदि भोजन
शराब, धूम्रपान, या ड्रग का सेवन उत्तेजित या कामुक माहौल या पदार्थों की संगती।
कृत्रिम आरामदायक वातावरण का अधिक उपयोग और प्रकृति वातावरण से दुरी।
शारीरक मेहनत, योग या व्यायाम की कमी।
भौतिक सुख की ओर ज्यादा रुझान।
भौतिकवाद विचारधारा का पालन
यह कुछ साधारण उदाहरण हैं जो राजसिक गुणो से युक्त जीवन पद्धति को पारिभाषित करते हैं| जो मनुष्य ऊपर उल्लेखित जीवन पद्धति में लिप्त होते हैं उनमे वासना उत्पन्न होने की संभावना अधिक होती है|
इस तथ्य का प्रतिपादन विज्ञान की विभिन्न धाराओं में भी किया गया है| मनोविज्ञान में सामाजिक जीवन का मनुष्य के ऊपर प्रभाव के बारे में विस्तृत वर्णन हैं जहाँ यह सिद्ध किया गया है कि आस पास के माहौल का पूरा प्रभाव मनुष्य के ऊपर पड़ता है| सामाजिक शास्त्र में इस इस प्रकार के सिद्धांत हैं| कई दूसरे शास्त्र, कवितायेँ और रचनाओं में इस तथ्य का वर्णन है| हममे से शायद ही कोई होगा जिसने यह पंक्ति नही पढ़ी हो:
“संगत से गुण होत है संगत से गुण जात”
यह कहावत तो गली गली में प्रचलित है|
बुरी संगत का असर बुरा ही होता है। ओर अच्छी संगत का असर अच्छी होती है।
वासना उत्पन्न कैसे होती है?
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वासना उत्पन्न होने का मूल कारण है सोच। सोच ही अच्छे या बुरे विचारो का आधार है। बुरे व नकरात्मक विचार ही वासना को जन्मदात्री है। यह तो ठीक है है प्रकृति में चारो ओर और हर पदार्थ में तीन गुणो का वास है और रजस गुण में वासना का वास होता है| लेकिन वातावरण से यह मनुष्य के मन तक कैसे आता है?
जब कोई मनुष्य रजस गुण से युक्त वातावरण जैसे अश्लील, कामुक, उत्तेजित, हिंसा युक्त वातावरण में रहता है वैसे कार्यों को देखता है, वैसे शब्दों को सुनता है और महसूस करता है तो उसकी इन्द्रियां, मन और बुद्धि उसमे लिप्त होते हैं| वह उन घटनाओं या उन पदार्थों के बारे में बार सोचता है जिससे उसके मन में उनके लिए इक्षा जागृत होती है, यह इक्षा जब एक हद से बढ़ जाती है तो यह वासना का रूप लेती है| यह तथ्य भी श्रीमद भगवद गीता में करुणामय भगवान के श्रीमुख से वर्णित
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥
भावार्थ : विषयों का(भौतिक पदार्थों) का लगातार चिन्तन करने से [वैसे मनुष्य की] उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना(वासना) उत्पन्न होती है और कामना(वासना) में विघ्न पड़ने से (कामना पूरी नही होने से) क्रोध उत्पन्न होता है॥
यह पूर्ण स्पस्ट है कि जब मनुष्य अश्लील, कामुक, उत्तेजना युक्त, हिंसा जैसे वातावरण में समय व्यतीत करता है, अपने इन्द्रियों और मन को को लिप्त करता है, तो उसमे वैसे भाव उत्पन्न होते हैं| वह उन अश्लील, कामुक, उत्तेजित यह हिंसा युक्त वस्तुओं या घटनाओं के बारे में सोचता है और उनमे फिर वैसे ही गुण आने लगते हैं| अगर समय रहते ऐसा मनुष्य खुद के ऊपर नियंत्रण नही करता और लगातार वैसे वातावरण में जाता है तो उसमे वासना(या उत्तेजन या हिंसा की भावना) उत्पन्न होगी ही| यह तो कोई भी बता सकता है कि अगर एक आदमी शराब खाना, जुआ खाना, या कोठे पर बैठा हो तो उसमे भक्ति के भाव तो नही ही आएंगे | शराबखाने में, जुयेखाने में, कोठे पर भगवान का भजन करने तो नही जाते लोग|
उपाय क्या है?
कारण तो बता ही दिया| अगर कोई इन्हें ईमानदारी से समझ ले तो उपाय भी खोज लेगा| कुछ उपायों को मैं यहाँ सारांश में वर्णित करता हूँ:
सबसे पहले तो हमे निराश नही होना चाहिये और सत्य को जानने का प्रयास करना चाहिये| इससे संबंधित सत्य यह है कि वासना, क्रोध आदि दुर्गुण प्रकृति कसे ही उत्पन्न होते है, चूँकि जीव का शरीर, मैं और बुद्धि इस प्रकृति के भाग हैं इसलिए काम(वासना) ही नही बल्कि प्रकृति के हर एक बदलाव का प्रभाव मनुष्य पर पडता है| एक खास जीवन पद्धति जिसमे रजस गुणो की प्रधानता हो जाती है तब वासना जैसे गुणो का जन्म होता है| अगर हम उस जीवन पद्धति को सही कर लें तो इन दुर्गुणों को बहुत आसानी से समाप्त किया ज सकता है|
रोकथाम ही उपाय है।
यह प्रक्रिया शारीरिक रोगों के संदर्भ सार्थक रूप से प्रयोग की जाती है| वासना भी तो शरीर और मानसिक रोग ही है और यह नियम यहाँ पर लागू होता है| जो मनुष्य यह चाहता है कि उसमे वासना जैसे दुर्गुण उत्पन्न न हों उसे वैसी जीवन पद्धति से बचना चाहिये जिसमें रजस गुणो की अधिकता हो| अश्लील, उत्तेजित आदि वातावरण से बचना चाहिये|
सात्विक जीवन पद्धति अपनाएं
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जो आत्म संयम के इक्षुक हैं और वासना जैसे गुणो कसे बचना चाहते हैं उन्हें अपने जीवन में सात्विक गुणो को बढ़ाने का प्रयास करना चाहिये सात्विक गुणो के बढ़ने से रजस या तमस गुण अपने आप ही नियंत्रित हो जाते हैं| तीन गुणो का पूर्ण विवरण पहले दिया जा चूका है, औरु उनका विस्तृत विवरण तो यहाँ संभव नही है लेकिन सारांश में निन्म बातों को अपनी दिनचर्या में शामिल करके सात्विक गुणो को बढ़ाया जा सकता है
१.अपनी नकारात्मक ओर तामसिक रुपी सोच पर नियंत्रण रखें।
२. इस सोच ओर कृत्य का विरोध करें।
३.आस -पास का वातावरण वासना रहित करने में अग्रसर हो। ४.बुरे लोगों की संगत से दूर रहे।
५. समाज, संस्थानों को बच्चों को इसके प्रति सजग रहने के लिए समुचित जानकारी प्रदान करने के प्रयत्न करने चाहिए।
६. आम नागरिक भी अपनी जिम्मेदारी समझने का प्रयत्न करना चाहिए।
७. शुद्ध, ताजा और तुरंत पका हुआ भोजन करें।शराब, धूम्रपान पर नियंत्रण करें| ड्रग से बचें|
८. घर को यथा संभव साफ़ सुथरा रखने का प्रयास करे|
९. अगर संभव हो तो प्रकृति वातावरण में अधिक से अधिक समय बिताए| प्रातःकाल योग या व्यायाम करें।
१०. अपने खाने, काम करने और सोने की दिनचर्या तो दुरुस्त करें|
११. कुछ अपना कुछ समय ईश्वर साधना, मंत्रोचार या शास्त्रों के अध्ययन में लगाएं
१२. सप्ताह में एक दो बार अपने परिवार के साथ मदिंर अवश्य जाएँ| मदिर सात्विक गुणो से युक्त होते हैं और वहां पर बिताया गया थोडा समय भी बहुत लाभकारी होता है|
१३. सात्विक गुण से युक्त मनुष्यों का साथ करें
१४. जीवन से कुछ समय निकालकर गरीबों, असहायों की सेवा करने का प्रयास करें| सेवा वह अमृत है जो अन्तःकरण को शुद्ध करता है और इससे अपार संतुष्टि एवं शांति प्राप्त होती है|
१५. अपने माता पिता, गुरु जन, ज्ञानी या अग्रजों का सम्मान करें| इससे मन शुद्ध एवं शांत होता है
और भी कई उपाय हैं जिसका पालन करके सात्विक गुणो में वृद्धि की जा सकती है| जो आत्म संयम के इक्षुक हंह उन्हें सात्विक गुणो में वृद्धि करने का प्रयास करना चाहिये|
2. जीवन में सकारात्मक विकल्पों का लक्ष्य बनायें
कभी कभी जीवन के लक्ष्य का सही निर्धारण नही होने से मनुष्य गलत आदतों के आदि हो जाते हैं| निराशा अपने आप में एक खतरनाक मनःस्थिति है और निराशा की स्थिति में मनुष्य बहुत कमजोर होता है और वह किसी भी दुर्गुण का शिकार हो सकता है|
हम यह जानते हैं कि सभी मनुष्य एक समान सक्षम नही होते है| एक जहाज पर सभी कैप्टेन तो नही हो सकते लेकिन फिर हर एक के लिए कुछ न कुछ करने को होता है, हम छोटे बड़े सभी रूप में अपने जीवन को सार्थक कर सकते हैं, समाज को कुछ न कुछ दे सकते हैं|
एक महान कवि कहा
अगर तुम एक पर्वत की चीड का पेड़ नही बन सकते
तो घाटी की एक झाडी ही बन जाओ
लेकिन बनो तो नदी किनारे की सबसे सुदर झाडी
अगर एक पेड़ नही बन सकते तो एक झाडी का छल्ला बन जाओ
अगर एक झाडी का छल्ला भी नही बन सकते तो एक घास ही बन जाओ
अगर मस्की(बड़ी मछली) नही बन सकते तो बास(एक छोटी मछली) बन जाओ
लेकिन बनो तो झील की सबसे सजीव मछली
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बात आकार की नही , सफलता या विफलता की नही
तुम जो भी हो उसे श्रेष्ठ करो
बात इसकी नही की हम बहुत बड़ा या छोटा करते है, बल्कि यह कि हम अपने जीवन को कितना सार्थक कर पाते हैं खुद के लिए और समाज के लिए| इन सब बुराइयों का सामना करने के लिए हम सब को भी प्रयत्न करना चाहिए। यह केवल देश ,समाज की ही जिम्मेदारी नहीं है, हमें भी अपनी कर्तव्य समझकर देश समाज का हिस्सा होने का परिचय देना होगा।
इस संसार में सबके लिए करने के लिए कुछ न कुछ अवश्य होता है|
हम सब को अपने जीवन का लक्ष्य तय करने का प्रयास करना चाहिये| खाली समय में अच्छे शौक जैसे संगीत, कला, खेल,समाज सेवा जैसे कार्यों को अपनाना चाहिये| और अगर कुछ नही मिलता तो हम अपने माता पिता, दादा दादी के कार्यों में हाथ बटा सकते हैं| कई ऐसे सकारात्मक कार्य है जो मनुष्य के जीवन को सुंदर, सुखी और शांत बना सकते हैं| कहने का अर्थ है कि हमे जीवन से निराशा को दूर करने के प्रयास करना चाहिये और अच्छी आदतों को धारण करने का प्रयास करना चाहिये| अच्छे गुणों से आत्म संयम स्वतः ही प्राप्त होता है|
आत्म संयम मनुष्य के सुख का आधार है और सभी मनुष्यों को किसी न किसी प्रकार से अपने ऊपर नियंत्रण रखना चाहिये| अनियंत्रित चरित्र में दुर्गुणों का आगमन कभी भी हो सकता है|
आत्म संयम के कई पहलू हैं यहाँ पर हमने सिर्फ एक पहलू की बात की आगे के विवेचनो में दूसरे तथ्यों पर चर्चा करेंगे|
आशा है यह लेख उपयोगी होगा
“श्री हरि ओम् तत् सत्”