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Friday, February 12, 2021

बीजाक्षरों का संक्षिप्त कोष

नवरात्रि के द्वितीय दिवस पर लिजिए आप के लिए प्रस्तुत है
*बीजाक्षरों का संक्षिप्त कोष*
आशा है यह आपके लिए संग्रहणीय होगा।

*ऊँ* —प्रणव, ध्रव, तैजस बीज है।
 *ऐं* —वाग् और तत्त्व बीज है। 
*क्लीं* —काम बीज है। 
*हो* —शासन बीज है। 
*क्षि* —पृथ्वी बीज है। 
*प* —अप् बीज है। 
*स्वा* —वायु बीज है । 
*हा:* —आकाश बीज है। 
*ह्रीं* —माया और त्रैलोक्य बीज है। 
*क्रों* —अंकुश और निरोध बीज है।
*आं* —फास बीज है। 
*फट्* —विसर्जन और चलन बीज है। 
*वषट्* —दहन बीज है। 
*वोषट्* —आकर्षण और पूजा ग्रहण बीज है। 
*संवौषट्* —आकर्षण बीज है। 
*ब्लूँ* —द्रावण बीज है। 
*ब्लैं* —आकर्षण बीज है। 
*ग्लौं* —स्तम्भन बीज है। 
*क्ष्वीं* —विषापहार बीज है। 
*द्रां, द्रीं, क्लीं* ब्लूँ, स:* —ये पांच बाण बीज हैं। 
*हूँ* —द्वेष और विद्वेषण बीज है। 
*स्वाहा* —हवन और शक्ति बीज है। 
*स्वधा* —पौष्टिक बीज है। 
*नम:* —शोधन बीज है। 
*श्रीं* —लक्ष्मी बीज है। 
*अर्हं* —ज्ञान बीज है। 
*क्ष: फट्* —शस्त्र बीज है। 
*य:*—उच्चाटन और विसर्जन बीज है। 
*जूँ* —विद्वेषण बीज है। 
*श्लीं* —अमृत बीज है। 
*क्षीं* —सोम बीज है। 
*ह्वं* —विष दूर करने वाला बीज है। 
*क्ष्म्ल* — पिंड बीज है। 
*क्ष* —कूटाक्षर बीज है। 
*क्षिं ऊँ स्वाहा* —शत्रु बीज है। 
*हा:*  —निरोध बीज है। 
*ठ:*  —स्तम्भन बीज है। 
*ब्लौं* —विमल पिंड बीज है। 
*ग्लैं*—स्तम्भन बीज है। 
*घे घे* —वद्य बीज है। 
*द्रां द्रीं* —द्रावण संज्ञक है। 
*ह्रीं ह्रूँ ह्रैं ह्रौ ह्र:* —शून्य रूप बीज हैं।
मंत्र की सफलता साधक और साध्य के ऊपर निर्भर करती है ध्यान के अस्थिर होने से भी मंत्र असफल हो जाता है। मन्त्र तभी सफल होता है, जब श्रद्धा भक्ति तथा संकल्प दृढ़ हो। मनोविज्ञान का सिद्धान्त है कि मनुष्य की अवचेतना में बहुत सी आध्यात्मिक शक्तियां भरी रहती हैं। इन्हीं शक्तियों को मंत्र द्वारा प्रयोग में लाया जाता है। मंत्र की ध्वनियों के संघर्ष द्वारा आध्यात्मिक शक्ति को उत्तेजित किया जाता है। इस कार्य में अकेली विचार शक्ति काम नहीं करती है। इसकी सहायता के लिये उत्कट इच्छा शक्ति के द्वारा ध्वनि संचालन की भी आवश्यकता है। मंत्र शक्ति के प्रयोग की सफलता के लिये नैष्ठिक आचार की आवश्यकता है। मंत्र निर्माण के लिए *ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूँ ह्रौं ह्र: ह्रा ह +स: क्लीं द्रां द्रीं द्रँ द्र: श्रीं क्षीं क्ष्वीं र्हं क्ष्वीं र्हं अं फट् वषट् संवौषट घे घै य: ख ह् पं वं यं झं तं थं दं* आदि बीजाक्षरों की शक्ति काम करती है।

जानिए बीज मंत्र का रहस्य

जानिए बीज मंत्र का रहस्य
हमारे धर्मशास्त्रों में अनेक प्रकार के बीज मंत्र बताए गए हैं। बीज मंत्र में अनेक प्रकार के गूढ़ रहस्य होते हैं जिनका प्रत्येक व्यक्ति को ज्ञान नहीं होता है। तो आइए आप भी जानें बीज मंत्र का रहस्य

1. "क्रीं" इसमें चार वर्ण हैं। (क, र, ई, अनुस्वार) क-काली, र-ब्रह्मा, ईकार-दुःखहरण, म-महाकाली।

अर्थात ब्रह्म-शक्ति-संपन्न महामाया काली मेरे दुखों का हरण करे।

2. "श्रीं" चार स्वर व्यंजन (श, र, ई, अनुस्वार) श-महालक्ष्मी, र-धन-ऐश्वर्य, ई तुष्टि, अनुस्वार- दुःखहरण।

अर्थात धन- ऐश्वर्य संपत्ति, तुष्टि-पुष्टि की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी आप मेरे दुखों का नाश करें।

3. "ह्रौं" (ह्र, औ, अनुस्वार) ह्र-शिव, औ-सदाशिव, अनुस्वार--दुःख हरण।


अर्थात शिव तथा सदाशिव कृपा कर मेरे दुखों का हरण करें।

4. "दूँ" ( द, ऊ, अनुस्वार) द दुर्गा, ऊ--रक्षा, अनुस्वार करना।

अर्थात हें माँ दुर्गे मेरी रक्षा करो, यह दुर्गा बीज है।

5. "ह्रीं" यह शक्ति बीज अथवा माया बीज है।

(ह, र, ई, नाद, बिंदु) ह-शिव, र-प्रकृति, ई-महामाया, नाद-विश्वमाता, बिंदु-दुःख हर्ता।

अर्थात शिवयुक्त विश्वमाता मेरे दुखों का हरण करें।

6. "ऐं" (ऐ, अनुस्वार) ऐ- सरस्वती, अनुस्वार-दुःखहरण।

अर्थात हे सरस्वती मेरे दुखों का अर्थात अविद्या का नाश करें।

7. "क्लीं" इसे काम बीज कहते हैं। (क, ल, ई अनुस्वार) क-कृष्ण अथवा काम, ल- इंद्र, ई-तुष्टि भाव, अनुस्वार-सुख दाता।

अर्थात कामदेव रूप श्री कृष्ण मुझे सुख-सौभाग्य दें।


8. "गं" यह गणपति बीज है। (ग, अनुस्वार) ग-गणेश, अनुस्वार-दुःखहर्ता।

अर्थात श्री गणेश मेरे विघ्नों को दुखों को दूर करें।

9. "हूँ" ( ह, ऊ, अनुस्वार) ह-शिव, ऊ- भैरव, अनुस्वार- दुःखहरता। यह कूर्च बीज है।

अर्थात असुर-सहारक शिव मेरे दुखों का नाश करें।

10. "ग्लौं" (ग, ल, औ, बिंदु) ग-गणेश, ल-व्यापक रूप, आय-तेज, बिंदु-दुखहरण।

अर्थात- व्यापक रूप विघ्नहर्ता गणेश अपने तेज से मेरे दुखों का नाश करें।

11. "स्त्रीं" (स, त, र, ई, बिंदु) स-दुर्गा, त- तारण, र- मुक्ति, ई- महामाया, बिंदु- दुःखहरण।

अर्थात- दुर्गा मुक्तिदाता, दुःखहर्ता,, भवसागर-तारिणी महामाया मेरे दुखों का नाश करें।

12. "क्षौं" (क्ष, र, औ, बिंदु) क्ष- नरसिंह, र-ब्रह्मा, औ- ऊर्ध्व, बिंदु- दुःख-हरण।

अर्थात- ऊर्ध्व केशी ब्रह्मस्वरूप नरसिंह भगवान मेरे दुखों को दूर करें।

13. "वं" (व्, बिंदु) व- अमृत, बिंदु दुःखहर्ता।

अर्थात हे अमृतसागर, मेरे दुखों का हरण कर।

इसी प्रकार के कई बीज मंत्र हैं। और उनके गूढ़ रहस्य भी इसी प्रकार अलग-अलग हैं।

शक्ति पात के लक्षण और पात्रता

🔱🚩#शक्तिपात_के_लक्षण_और_पात्रता 🚩🔱
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पूर्ण शक्तिपात का मुख्य लक्षण है साधक में भगवद्भक्ति का उन्मेष होना |कुंडलिनी का जाग्रत होना, मंत्र की सिद्धि भी प्राप्त होती है |वह सभी प्राणियों को अपने अनुकूल बनाने की योग्यता वाला हो जाता है |उसके प्रारब्ध कर्म समाप्त हो जाते हैं , उनके बिना भोगे ही उसकी मुक्ति हो जाती है | जब तक शरीर रहता है उसके साथ सुख-दुःख तो संयुक्त रहते ही है किन्तु इनका साधक पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता ,वह निर्लिप्त भाव से उन्हें ग्रहण करता है ,सभी परिस्थितियों में आनंद की मुद्रा ही उसकी विशेष मुद्रा बन जाती है ,ऐसा इसलिए होता है की साधक को कर्म फल के नियम का ज्ञान हो जाता है ,साथ ही उसमे अतिरिक्त ऊर्जा संचार हो जाने से मानसिक और शारीरिक क्षमता में भी वृद्धि हो जाती है |साधक पर शास्त्रों का ज्ञान सिमटकर आ जाता है,

🌼वैचारिक तरंग उठते ही मन में प्रश्नों के उत्तर प्राप्त होने लगते हैं यह कुछ इस तरह होता है की वह जिस माध्यम से शिक्षित होता है उसी माध्यम से रहस्य की परतें स्वयमेव अचेतन प्रेरणा से प्राप्त होने लगती हैं | वास्तव में यह ज्ञान उसका ही होता है किन्तु जन्म बंधन से अवचेतन का ज्ञान आवरण में छिपा होता है जो शक्तिपात होते की खुल जाता है और उसके सौकड़ों जन्मों का ज्ञान उसको अपने ही अवचेतन से किसी भी सम्बद्ध विषय पर अपने आप मन में प्राप्त होने लगता है |साधक अपने ही विचारों से ,अपने ही ज्ञान से स्वयं हतप्रभ होने लगता है |इस कार्यप्रणाली का हमें स्वयं व्यक्तिगत अनुभव रहा है अतः इसे बेहतर समझ पाते हैं |

🌼शक्तिपात गुरु की शक्ति पर निर्भर करता है कि कितनी शक्ति उनके द्वारा दी जा सकती है  I यह शिष्य की पात्रता और क्षमता पर भी निर्भर करता है की गुरु कितनी ऊर्जा अपने शक्तिपात में देगा  I गुरु सक्षम है और पूर्ण शक्तिपात कर देता है तो शक्तिपात होते ही शरीर भूमि पर गिर जाता है ,कम्पन होने लगता है ,मन में असीम प्रसन्नता का आभास होता है ,परम आनंद की अनुभूति होने लगती है  I शिष्य रोमांचित हो उठता है |

🌼इस तरह से शक्तिपात से देह्पात के लक्षण दृष्टिगोचर होने लगे तो यह जानना चाहिए की शिव कृपा हुई है  I कृतार्थता का भाव आना ही चाहिए |इसके बाद फिर उसके जन्म ग्रहण करने की संभावना नहीं रहती हैI |आज के समय में एक बात बहुतायत से होती है की यदि गुरु सक्षम है और शक्तिपात कर देता है तो शिष्य के जीवन में उठापटक भी होने लगता है |कुछ अपनों से दूरी ,अनहोनी घटनाएं ,परिवार में डावांडोल की स्थिति भी बन सकती है , 

🌼गुरु की शक्ति की प्रकृति के अनुसार शिष्य का स्वाभाव परिवर्तित होना भी सम्भव होता है | ऐसा  इसलिए होता है की आज के समय में लगभग हर कोई थोड़ी -बहुत नकारात्मक ऊर्जा के प्रभाव में होता ही है चूंकि कलयुग और नकारात्मकता का प्रभाव है हर ओर अतः जब गुरु द्वारा किसी शक्ति को दिया जाता है अथवा सकारात्मक या धनात्मक ऊर्जा प्रवाहित की जाती है तो नकारात्मक उर्जाये तीव्र प्रतिक्रया करती हैं और साधक तथा परिवार को अस्त व्यस्त करने का प्रयत्न करती हैं जिससे वह मार्ग से हट जाय I 

🌼अक्सर खुद का स्वभाव और सोच परिवर्तित होने से स्वार्थी ,धोखेबाज और अहित चाहने वालों के चेहरे खुलने लगते हैं जिससे व्यक्ति के रिश्ते सीमित होने लगते हैं |व्यक्ति लक्ष्य केन्द्रित और अंतर्मुखी होने लगता है |शक्ति अनुसार उग्रता अथवा सौम्यता भी आ सकती है |विरक्ति भी अक्सर देखी जाती है |यह सब हमारे खुद के अनुभव रहे हैं I 

🌼शक्तिपात से प्रकाष्ट हर्ष का उत्पन्न होना ,स्वर -नेत्र और अंगों विशेष की क्रिया का होना ,कम्पन आदि ,शरीर का पात ,भ्रमण ,उद्गति ,अवस्थान ,देह का दिखलाई न देना ,प्रकाश रूप से भाषित होना ,सब शास्त्रों का स्वतः प्रकाशन होना आदि हो सकता है | राम को गुरु वशिष्ठ से जब यह प्रसाद प्राप्त हुआ था तो राम को इस जगत से वैराग्य हो गया था | भगवान् दत्तात्रेय द्वारा भद्र पर शक्तिपात किया गया था ,इसमें स्पर्श दीक्षा से आत्मबोध कराया गया था | आलिंगन करते ही आनंद का स्रोत उमड़ पड़ा था ,भौतिक शरीर की सुध-बुध जाती रही थी ,संकल्प विकल्प की समाप्ति हो गयी थी |रामकृष्ण परमहंस द्वारा विवेकानंद को स्पर्श मात्र से कुंडलिनी जाग्रत कर देना शक्तिपात का एक उत्तम उदाहरण है | 

🌼शक्तिपात की शक्ति गुरु की शक्ति और क्षमता के सापेक्ष होती है  Iगुरु सक्षम हो तो उपरोक्त कोई भी लक्षण आ सकते हैं  I गुरु जितना सक्षम होगा शक्तिपात से उसकी क्षमता उतना तक शिष्य पर आ सकती है |यहाँ गुरु की इच्छा महत्वपूर्ण हो जाती है की वह कितना शक्ति प्रदान करना चाहता है अपने शिष्य को |कितनी क्षमता है उसके शिष्य की जिससे की वह आसानी से शक्ति वहन कर सके | यही कारण है की गुरु शिष्य बनाने के पहले शिष्य की क्षमता को तौलता है ,देखता है की शिष्य ,शिष्यत्व लायक गुण रखता है की नहीं |

🌼आधुनिक समय में तो दीक्षा और शक्तिपात तक व्यवसाय का रूप ग्रहण करता जा रहा है ,,किन्तु क्या वास्तव में वहां शक्तिपात होता है ,क्या खुद गुरुदेव इतने सक्षम होते हैं की शक्तिपात कर सकें | बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है यह  , वास्तविक गुरु जिनमे शक्तिपात की क्षमता हो सदैव शिष्य बनाने के प्रति अनिच्छुक होता है |वह दूर रहना चाहता है सामान्यतया लोगों से  , कुछ चुने हुए शिष्यों को ही वह शक्तिपात से अपनी शक्ति प्रदान करता है , |यह निश्चित होता है की शक्तिपात से गुरु की शक्ति शिष्य को प्राप्त होती है और वर्षों की साधना का परिणाम क्षणों में में मिल जाता है |इसके साथ ही शिष्य साधना मार्ग पर अग्रसर हो जाता है |गुरु के साथ एक अदृश्य सम्बन्ध सदैव बने रहते हैं शिष्य कहीं भी हो |वास्तव में शक्तिपात ब्रह्मांडीय ऊर्जा से गुरु के द्वारा सम्बन्ध है | 

🌼शक्तिपात के बाद भौतिक जीवन में अक्सर उथल पुथल होने लगती है चूंकि व्यक्ति का झुकाव एकात्मता ,चिंतन और आध्यात्मिकता की ओर होने लगता है | ऐसे में सम्बन्धियों और परिवार को लगता है की वह उनसे दूर जा रहा है | शक्तिपात के बाद कुछ भी यदि महसूस न हो तो समझना चाहिते की या तो शक्ति ग्रहण करने की शिष्य में क्षमता नहीं या गुरु ने शक्ति दिया नहीं अथवा उनकी रूचि नहीं | आवश्यक नहीं की सबकुछ सकारात्मक ही दिखे ,परिस्थितियां नकारात्मक भी बन सकती हैं किन्तु इनका भविष्य के अच्छे होने से अवश्य सम्बन्ध होता है |गुरु आज की परिस्थिति नहीं देखता ,घर -परिवार -भौतिक आवश्यकता नहीं देखता ,उसका उद्देश्य शिष्य को मुक्ति के मार्ग पर डालना होता है ,भगवद्भक्ति का उन्मेष करना होता है |ऐसे में व्यक्ति की सोच बदलने से उथल पुथल होती है |कभी कभी तो इसके बाद व्यक्ति घर -परिवार ही छोड़ देता है |

🌼🚩शक्तिपात और पात्रता 🚩🌼
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शक्तिपात तीन प्रकार का होता है |तीब्र ,मध्य ,मंद |इन तीनो के तीन भेद होते हैं |तीब्रतर तीब्र शक्तिपात में उसी समय शरीर छूट जाता है |मध्य तीब्र में कुछ समय लगता है और मंद तीब्र तीब्रता से अपने आप ही शरीर का नाश होता है |अत्यंत तीब्र में तो प्रारब्ध कर्मों का भी नाश हो जाता है |अन्य में भी प्रारब्ध का नाश शक्तिपात की तीब्रता पर निर्भर करता है |तीब्र शक्तिपात से शरीर का नाश होता है ,परन्तु मध्य तीब्र में ऐसा नहीं होता है ,उसमे अज्ञान का नाश और ज्ञान का प्रकटीकरण होता है |इस ज्ञानार्जन से कर्मों का क्षय होता है |मंद तीब्र शक्तिपात से मन में विवेक के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न होती है ,तत्त्व को जानने की उत्कंठा होती है और मुक्ति के पथ की और साधक अग्रसर होने लगता है |

🌼शक्तिपात के लिए गुरु का सामर्थ्यवान होना आवश्यक है ,किन्तु शिष्य को इसके लिए किसी प्रकार की कोई तैयारी नहीं करनी पड़ती है |गुरु ही यह देखता है की शिष्य की क्या क्षमता है |तैयारी की आवश्यकता न होने पर भी शिष्य को शक्तिपात का अधिकारी होने के लिए कुछ मर्यादाएं निश्चित की गयी हैं ,जिससे शक्तिपात मात्र खेल बनकर न रह जाए |वह शिष्य जो इन्द्रियों को जीतने वाला ,ब्रह्मचारी ,गुरुभक्त हो वही इसका अधिकारी है |जो गुरु में पूर्ण निष्ठां ,विश्वास और श्रद्धा रखता हो तथा पूर्ण समर्पण कर दे गुरु इच्छा पर वास्तव में वही शक्तिपात का अधिकारी होता है | 

नास्तिक ,कृतघ्न ,दुरात्मा,दाम्भिक,न्रिशंश,शत और असत्य भाषी इसका अधिकारी नहीं है |जो सुब्रत्धारी ,सच्चा भक्त ,शुद्ध वृत्ति वाला ,सुशील,विनम्र ,धर्मबुद्धि ,भक्तियुक्त हो वह अधिकारी है |इस पर भी शिष्य की कुछ समय परीक्षा करने का निर्देश दिया जाता है |जो गुरु के सानिध्य में एक वर्ष न रहा हो ,जो शांत न हो ,अनजान कुल शील वाला हो ,कुपुत्र हो ,अशिष्य हो ,जिसे परमात्मा के उपर और परमात्मा के समान गुरु में भक्ति न हो उसे शक्तिपात की शक्ति नहीं देनी चाहिए |अक्सर इन्ही कारणों से तंत्र में गुरु कठोर परीक्षा लेता है शिष्य का जिसमे अक्सर आधुनिक शिष्य असफल हो जाते हैं |

🚩 जो व्यक्ति समाधि के साधनों ,गुण ,शील से समन्वित हो वही दीक्षा का अधिकारी है 🚩
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सात्विक,धार्मिक,दृढब्रती,शुद्ध,सदाचारी,श्रद्धा और भक्तियुक्त ,विचारवान,उदारचित्त,गंभीर ह्रदय ही शक्ति प्राप्त कर सकता है |जिस शिष्य में भक्ति भावना का अभाव है केवल चिन्ह पूजा के लिए अथवा प्रयोजन विशेष के लिए किसी गुरु का वरण करता है वह इस प्रसाद को प्राप्त नहीं कर सकता है |आज के समय में जबकि गुरु ही किसी न किसी भौतिक उद्देश्य को ध्यान में रखकर बनाया जाता है ,शक्तिपात का अधिकार न गुरु को होता है न शिष्य को |वैसे भी आज शक्तिपात की क्षमता वाला गुरु खोजे नहीं मिलता |आज तो शक्तिपात का प्रचार किया जा रहा किन्तु वास्तव में कौन शक्तिपात करता है कहा नहीं जा सकता |

🌼आज के समय में तो कुछ लोग शक्तिपात से कुंडलिनी जगाने का भी दावा करते हैं और इसकी दूकान खोल रखी है |जिनके पास शक्तिपात की शक्ति होती है वह खुद को समाज से दूर रखते हैं और शिष्य बनाने में उनकी रूचि नहीं होती |शक्तिपात के बाद भौतिक जीवन यथावत रहे ,आवश्यक नहीं होता |कभी कभी शक्तिपात के बाद भौतिक जीवन बिखरने भी लगता है और स्वार्थी ,लोलुप ,सम्बन्धियों /लोगों से स्वयमेव सम्बन्ध टूटने लगते हैं|भावना कुछ इस तरह की होने लगती है की व्यक्ति खुद लोगों से दूर जाने लगता है |शक्तिपात की शक्ति के अनुसार परिणाम अलग अलग होते हैं |शक्तिपात का अधिकार प्राप्त करने के लिए निष्काम भाव का विकास आवश्यक है ,क्योकि इसका मूल उद्देश्य मुक्ति है ,भुक्ति से इसका कोई सम्बन्ध नहीं होता |शक्तिपात का सम्बन्ध ब्रह्मांडीय ऊर्जा से होता है अतः व्यक्ति का सम्बन्ध पृथ्वी के भौतिक जीवन से टूटने लगता है |वह ज्ञान अथवा भक्ति के सागर में गोते लगाने लगता है तथा उसी में उसे आनंद ,तृप्ति मिलती है ...........

साभार - निखिल उपनिषद🙏
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Wednesday, February 10, 2021

कैसे हुई शिव तांडव स्तोत्र की रचना

कैसे बना शिव तांडव स्त्रोत
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कुबेर व रावण दोनों ऋषि विश्रवा की संतान थे और  दोनों सौतेले भाई थे। ऋषि विश्रवा ने सोने की लंका का राज्‍य कुबेर को दिया था लेकिन किसी कारणवश अपने पिता के कहने पर वे लंका का त्याग कर हिमाचल चले गए।

कुबेर के चले जाने के बाद इससे दशानन बहुत प्रसन्न हुआ। वह लंका का राजा बन गया और लंका का राज्‍य प्राप्‍त करते ही धीरे-धीरे वह इतना अहंकारी होगया कि उसने साधुजनों पर अनेक प्रकार के अत्याचार करने शुरू कर दिए।

जब दशानन के इन अत्‍याचारों की ख़बर कुबेर को लगी तो उन्होंने अपने भाई को समझाने के लिए एक दूत भेजा, जिसने कुबेर के कहे अनुसार दशानन को सत्य पथ पर चलने की सलाह दी। कुबेर की सलाह सुन दशानन को इतना क्रोध आया कि उसने उस दूत को बंदी बना लिया व क्रोध के मारे तुरन्‍त अपनी तलवार से उसकी हत्‍या कर दी।

कुबेर की सलाह से दशानन इतना क्रोधित हुआ कि दूत की हत्‍या के साथ ही अपनी सेना लेकर कुबेर की नगरी अलकापुरी को जीतने निकल पड़ा और कुबेर की नगरी को तहस-नहस करने के बाद अपने भाई कुबेर पर गदा का प्रहार कर उसे भी घायल कर दिया लेकिन कुबेर के सेनापतियों ने किसी तरह से कुबेर को नंदनवन पहुँचा दिया जहाँ वैद्यों ने उसका इलाज कर उसे ठीक किया। 
चूंकि दशानन ने कुबेर की नगरी व उसके पुष्‍पक विमान पर भी अपना अधिकार कर लिया था, सो एक दिन पुष्‍पक विमान में सवार होकर शारवन की तरफ चल पड़ा। लेकिन एक पर्वत के पास से गुजरते हुए उसके पुष्पक विमान की गति स्वयं ही धीमी हो गई।

चूंकि पुष्‍पक विमान की ये विशेषता थी कि वह चालक की इच्‍छानुसार चलता था तथा उसकी गति मन की गति से भी तेज थी, इसलिए जब पुष्‍पक विमान की गति मंद हो गर्इ तो दशानन को बडा आश्‍चर्य हुआ। तभी उसकी दृष्टि सामने खडे विशाल और काले शरीर वाले नंदीश्वर पर पडी। नंदीश्वर ने दशानन को चेताया कि-

यहाँ भगवान शंकर क्रीड़ा में मग्न हैं इसलिए तुम लौट जाओ.

लेकिन दशानन कुबेर पर विजय पाकर इतना दंभी हो गया था कि वह किसी कि सुनने तक को तैयार नहीं था। उसे उसने कहा कि-

कौन है ये शंकर और किस अधिकार से वह यहाँ क्रीड़ा करता है?  मैं उस पर्वत का नामो-निशान ही मिटा दूँगा, जिसने मेरे विमान की गति अवरूद्ध की है।

इतना कहते हुए उसने पर्वत की नींव पर हाथ लगाकर उसे उठाना चाहा। अचानक इस विघ्न से शंकर भगवान विचलित हुए और वहीं बैठे-बैठे अपने पाँव के अंगूठे से उस पर्वत को दबा दिया ताकि वह स्थिर हो जाए। लेकिन भगवान शंकर के ऐसा करने से दशानन की बाँहें उस पर्वत के नीचे दब गई। फलस्‍वरूप क्रोध और जबरदस्‍त पीडा के कारण दशानन ने भीषण चीत्‍कार कर उठा, जिससे ऐसा लगने लगा कि मानो प्रलय हो जाएगा। तब दशानन के मंत्रियों ने उसे शिव स्तुति करने की सलाह दी ताकि उसका हाथ उस पर्वत से मुक्‍त हो सके।

दशानन ने बिना देरी किए हुए सामवेद में उल्लेखित शिव के सभी स्तोत्रों का गान करना शुरू कर दिया, जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने दशानन को क्षमा करते हुए उसकी बाँहों को मुक्त किया।

दशानन द्वारा भगवान शिव की स्‍तुति के लिए किए जो स्‍त्रोत गाया गया था, वह दशानन ने भयंकर दर्द व क्रोध के कारण भीषण चीत्‍कार से गाया था और इसी भीषण चीत्‍कार को संस्‍कृत भाषा में राव: सुशरूण: कहा जाता है। इसलिए जब भगवान शिव, रावण की स्‍तुति से प्रसन्‍न हुए और उसके हाथों को पर्वत के नीचे से मुक्‍त किया, तो उसी प्रसन्‍नता में उन्‍होंने दशानन का नाम रावण यानी ‘भीषण चीत्कार करने पर विवश शत्रु’ रखा क्‍योंकि भगवान शिव ने रावण को भीषण चीत्‍कार करने पर विवश कर दिया था और तभी से दशानन काे रावण कहा जाने लगा।
शिव की स्तुति के लिए रचा गया वह सामवेद का वह स्त्रोत, जिसे रावण ने गाया था, को आज भी रावण-स्त्रोत व शिव तांडव स्‍त्रोत के नाम से जाना जाता है।

रावण रचित शिव तांडव स्तोत्र हिंदी अनुवाद सहित
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॥अथ रावण कृत शिवतांडव स्तोत्र ॥
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जटाटवीग लज्जलप्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्‌।
डमड्डमड्डमड्डम न्निनादवड्डमर्वयं
चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम ॥1॥

सघन जटामंडल रूप वन से प्रवाहित होकर श्री गंगाजी की धाराएँ जिन शिवजी के पवित्र कंठ प्रदेश को प्रक्षालित (धोती) करती हैं, और जिनके गले में लंबे-लंबे बड़े-बड़े सर्पों की मालाएँ लटक रही हैं तथा जो शिवजी डमरू को डम-डम बजाकर प्रचंड तांडव नृत्य करते हैं, वे शिवजी हमारा कल्याण करें।
🔔--------ऊँ नम: शिवाय---------🔔
जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी ।
विलोलवी चिवल्लरी विराजमानमूर्धनि ।
धगद्धगद्ध गज्ज्वलल्ललाट पट्टपावके
किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥2॥

अति अम्भीर कटाहरूप जटाओं में अतिवेग से विलासपूर्वक भ्रमण करती हुई देवनदी गंगाजी की चंचल लहरें जिन शिवजी के शीश पर लहरा रही हैं तथा जिनके मस्तक में अग्नि की प्रचंड ज्वालाएँ धधक कर प्रज्वलित हो रही हैं, ऐसे बाल चंद्रमा से विभूषित मस्तक वाले शिवजी में मेरा अनुराग (प्रेम) प्रतिक्षण बढ़ता रहे।
🔔--------ऊँ नम: शिवाय---------🔔
धरा धरेंद्र नंदिनी विलास बंधुवंधुर-
स्फुरदृगंत संतति प्रमोद मानमानसे ।
कृपाकटा क्षधारणी निरुद्धदुर्धरापदि
कवचिद्विगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥3॥

पर्वतराजसुता के विलासमय रमणीय कटाक्षों से परम आनंदित चित्त वाले (माहेश्वर) तथा जिनकी कृपादृष्टि से भक्तों की बड़ी से बड़ी विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं, ऐसे (दिशा ही हैं वस्त्र जिसके) दिगम्बर शिवजी की आराधना में मेरा चित्त कब आनंदित होगा।
🔔--------ऊँ नम: शिवाय---------🔔
जटा भुजं गपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा-
कदंबकुंकुम द्रवप्रलिप्त दिग्वधूमुखे ।
मदांध सिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे
मनो विनोदद्भुतं बिंभर्तु भूतभर्तरि ॥4॥

जटाओं में लिपटे सर्प के फण के मणियों के प्रकाशमान पीले प्रभा-समूह रूप केसर कांति से दिशा बंधुओं के मुखमंडल को चमकाने वाले, मतवाले, गजासुर के चर्मरूप उपरने से विभूषित, प्राणियों की रक्षा करने वाले शिवजी में मेरा मन विनोद को प्राप्त हो।
🔔--------ऊँ नम: शिवाय---------🔔
सहस्र लोचन प्रभृत्य शेषलेखशेखर-
प्रसून धूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः ।
भुजंगराज मालया निबद्धजाटजूटकः
श्रिये चिराय जायतां चकोर बंधुशेखरः ॥5॥

इंद्रादि समस्त देवताओं के सिर से सुसज्जित पुष्पों की धूलिराशि से धूसरित पादपृष्ठ वाले सर्पराजों की मालाओं से विभूषित जटा वाले प्रभु हमें चिरकाल के लिए सम्पदा दें।
🔔--------ऊँ नम: शिवाय---------🔔
ललाट चत्वरज्वलद्धनंजयस्फुरिगभा-
निपीतपंचसायकं निमन्निलिंपनायम्‌ ।
सुधा मयुख लेखया विराजमानशेखरं
महा कपालि संपदे शिरोजयालमस्तू नः ॥6॥

इंद्रादि देवताओं का गर्व नाश करते हुए जिन शिवजी ने अपने विशाल मस्तक की अग्नि ज्वाला से कामदेव को भस्म कर दिया, वे अमृत किरणों वाले चंद्रमा की कांति तथा गंगाजी से सुशोभित जटा वाले, तेज रूप नर मुंडधारी शिवजीहमको अक्षय सम्पत्ति दें।
🔔--------ऊँ नम: शिवाय---------🔔
कराल भाल पट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल-
द्धनंजया धरीकृतप्रचंडपंचसायके ।
धराधरेंद्र नंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक-
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने मतिर्मम ॥7॥

जलती हुई अपने मस्तक की भयंकर ज्वाला से प्रचंड कामदेव को भस्म करने वाले तथा पर्वत राजसुता के स्तन के अग्रभाग पर विविध भांति की चित्रकारी करने में अति चतुर त्रिलोचन में मेरी प्रीति अटल हो।
🔔--------ऊँ नम: शिवाय---------🔔
नवीन मेघ मंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर-
त्कुहु निशीथिनीतमः प्रबंधबंधुकंधरः ।
निलिम्पनिर्झरि धरस्तनोतु कृत्ति सिंधुरः
कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥8॥

नवीन मेघों की घटाओं से परिपूर्ण अमावस्याओं की रात्रि के घने अंधकार की तरह अति गूढ़ कंठ वाले, देव नदी गंगा को धारण करने वाले, जगचर्म से सुशोभित, बालचंद्र की कलाओं के बोझ से विनम, जगत के बोझ को धारण करने वाले शिवजी हमको सब प्रकार की सम्पत्ति दें।
🔔--------ऊँ नम: शिवाय---------🔔
प्रफुल्ल नील पंकज प्रपंचकालिमच्छटा-
विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्‌
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥9॥

फूले हुए नीलकमल की फैली हुई सुंदर श्याम प्रभा से विभूषित कंठ की शोभा से उद्भासित कंधे वाले, कामदेव तथा त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दुखों के काटने वाले, दक्षयज्ञविध्वंसक, गजासुरहंता, अंधकारसुरनाशक और मृत्यु के नष्ट करने वाले श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ।
🔔--------ऊँ नम: शिवाय---------🔔
अगर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी-
रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्‌ ।
स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं
गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥10॥

कल्याणमय, नाश न होने वाली समस्त कलाओं की कलियों से बहते हुए रस की मधुरता का आस्वादन करने में भ्रमररूप, कामदेव को भस्म करने वाले, त्रिपुरासुर, विनाशक, संसार दुःखहारी, दक्षयज्ञविध्वंसक, गजासुर तथा अंधकासुर को मारनेवाले और यमराज के भी यमराज श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ।
🔔--------ऊँ नम: शिवाय---------🔔
जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमस्फुर-
द्धगद्धगद्वि निर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्-
धिमिद्धिमिद्धिमि नन्मृदंगतुंगमंगल-
ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥11॥

अत्यंत शीघ्र वेगपूर्वक भ्रमण करते हुए सर्पों के फुफकार छोड़ने से क्रमशः ललाट में बढ़ी हुई प्रचंड अग्नि वाले मृदंग की धिम-धिम मंगलकारी उधा ध्वनि के क्रमारोह से चंड तांडव नृत्य में लीन होने वाले शिवजी सब भाँति से सुशोभित हो रहे हैं।
🔔--------ऊँ नम: शिवाय---------🔔
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंग मौक्तिकमस्रजो-
र्गरिष्ठरत्नलोष्टयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।
तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥12॥

कड़े पत्थर और कोमल विचित्र शय्या में सर्प और मोतियों की मालाओं में मिट्टी के टुकड़ों और बहुमूल्य रत्नों में, शत्रु और मित्र में, तिनके और कमललोचननियों में, प्रजा और महाराजाधिकराजाओं के समान दृष्टि रखते हुए कब मैं शिवजी का भजन करूँगा।
🔔--------ऊँ नम: शिवाय---------🔔
कदा निलिंपनिर्झरी निकुजकोटरे वसन्‌
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्‌ ।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः
शिवेति मंत्रमुच्चरन्‌ कदा सुखी भवाम्यहम्‌ ॥13॥

कब मैं श्री गंगाजी के कछारकुंज में निवास करता हुआ, निष्कपटी होकर सिर पर अंजलि धारण किए हुए चंचल नेत्रों वाली ललनाओं में परम सुंदरी पार्वतीजी के मस्तक में अंकित शिव मंत्र उच्चारण करते हुए परम सुख को प्राप्त करूँगा।
🔔--------ऊँ नम: शिवाय---------🔔
निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-
निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः ।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं
परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥14॥

देवांगनाओं के सिर में गूँथे पुष्पों की मालाओं के झड़ते हुए सुगंधमय पराग से मनोहर, परम शोभा के धाम महादेवजी के अंगों की सुंदरताएँ परमानंदयुक्त हमारेमन की प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहें।
🔔--------ऊँ नम: शिवाय---------🔔
प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी
महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना ।
विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः
शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्‌ ॥15॥

प्रचंड बड़वानल की भाँति पापों को भस्म करने में स्त्री स्वरूपिणी अणिमादिक अष्ट महासिद्धियों तथा चंचल नेत्रों वाली देवकन्याओं से शिव विवाह समय में गान की गई मंगलध्वनि सब मंत्रों में परमश्रेष्ठ शिव मंत्र से पूरित, सांसारिक दुःखों को नष्ट कर विजय पाएँ।
🔔--------ऊँ नम: शिवाय---------🔔
इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं
पठन्स्मरन्‌ ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्‌ ।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नांयथा गतिं
विमोहनं हि देहना तु शंकरस्य चिंतनम ॥16॥

इस परम उत्तम शिवतांडव श्लोक को नित्य प्रति मुक्तकंठ सेपढ़ने से या श्रवण करने से संतति वगैरह से पूर्ण हरि और गुरु मेंभक्ति बनी रहती है। जिसकी दूसरी गति नहीं होती शिव की ही शरण में रहता है।
🔔--------ऊँ नम: शिवाय---------🔔
पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं
यः शम्भूपूजनमिदं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां
लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥17॥

शिव पूजा के अंत में इस रावणकृत शिव तांडव स्तोत्र का प्रदोष समय में गान करने से या पढ़ने से लक्ष्मी स्थिर रहती है। रथ गज-घोड़े से सर्वदा युक्त रहता है।

🔔🔔🔔हर हर महादेव🔔🔔🔔
॥ इति शिव तांडव स्तोत्रं संपूर्णम्‌ ॥
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Tuesday, February 9, 2021

गुरू की पहचान क्या है ? महत्वपूर्ण व्याख्या

🔱🚩#गुरु_की_पहचान_क्या_है_महत्वपूर्ण_व्याख्या 🚩🔱
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गुरु शब्द में बहुत सारी आशा और सकारात्मकता है, ऐसा कहा भी जाता है कि जिसके सिर पर उसके गुरु का हाथ है उसको भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है | गुरु होने पर व्यक्ति को लगता है कि उसके सिर पर ऐसी छत्रछाया है जिसके कारण वह सभी प्रकार की समस्याओं और अनहोनियों से सुरक्षित है, उसके सभी कार्य निर्विघ्न(बिना रूकावट) हो जायेंगे और उसके द्वारा जाने-अनजाने हो गए सभी पापों को गुरु क्षमा करेंगे और उसे बुरे कर्मों के दंड का सामना नहीं करना पड़ेगा |  गुरु पर विश्वास करने वाले व्यक्ति की श्रद्धा देवी देवताओं पर होने वाली श्रद्धा से अधिक होती है क्योंकि उसके अंतर्मन में यह निश्चित होता है कि जो कार्य देवी देवता भी नहीं कर सकते वह मेरा गुरु कर सकता है इसका एक कारण यह भी है कि देवी देवता उसके सामने नहीं है जबकि गुरु से वह अपने मन की बात करके अपनी इच्छा या समस्या का समाधान पा सकता है | प्रत्येक व्यक्ति की अपनी श्रद्धा और विश्वास पर निर्भर करता है कि उसके मन में उसके गुरु का क्या स्तर है | जब व्यक्ति की श्रद्धा, विश्वास और उसके गुरु का स्तर तीनो मिल जाते है तो संसार का हर असंभव कार्य बड़ी सरलता से हो जाता है |

🌺ऐसे तो संसार में हर व्यक्ति गुरु और शिष्य दोनों है क्योंकि सभी लोग एक दूसरे को प्रत्यक्ष-अप्रयक्ष रूप से बहुत कुछ सिखाते है, फिर भी प्रत्येक व्यक्ति एक ऐसे गुरु की तलाश में है जो उसे सांसारिक और अध्यात्मिक ज्ञान देकर कृतार्थ करे | अनेक प्रकार की  मान्यताओं और अंधविश्वासों के कारण आज संसार में सच्चे गुरु की पहचान होना या सच्चे गुरू का मिलना असंभव सा लगता है परन्तु ऐसा नहीं है कि सच्चे गुरु संसार में नहीं है यदि ऐसा होता तो आज संसार में धर्म या आध्यात्म की कोई बात ना हो रही होती | यह एक अलग बात है कि साधारण व्यक्ति को ज्ञान की कमी और गुरु के बारे में उसकी जानकारी के कारण भ्रम की स्थिति बनी रहती है क्योंकि किताबों में गुरु के बारे में जो लिखा हुआ है वर्तमान गुरु उसके बिलकुल विपरीत दिखता है | वेशभूषा और किताबी बातों द्वारा स्वयं को गुरु बता कर दिशाहीन और भयभीत करने वाले गुरु हर स्थान पर मिलते है जिनके पास स्वयंज्ञान नहीं है, ऐसे लोगो के कारण ही धर्म(नियम) में इतना अंधविश्वास मिश्रित हो चुका है कि अब साधारण व्यक्ति धार्मिक या आध्यात्मिक होने से भी डरता है | सभी को भली प्रकार से पता है धर्म की आड़ में साधारण व्यक्ति की श्रद्धा और विश्वास का किस प्रकार से शोषण होता है |

🌺प्राचीनकाल की तुलना में आज का व्यक्ति अधिक समझदार है और इसके पास जानकारी के लिए इन्टरनेट और पुस्तकों के अथाह सागर है जिसमें उसके सभी प्रश्नों के उत्तर है परन्तु परिवार और बाहरी जानकारी के अनुसार उसके मन में जो निस्वार्थ और कृपालु गुरु की छवि है वैसा गुरु उसे कहीं नहीं मिलता जिसके कारण आज का व्यक्ति सही-गलत और पाप-पुण्य को लेकर बहुत अधिक भ्रमित और भयभीत है | परिवार से मिले धर्म-संस्कारों पर चलने पर व्यक्ति अपने आपको पापी और गुनाहगार समझता है, हर कार्य करने के साथ वह भय और भ्रम की स्थिति में रहता है कि कहीं उसके द्वारा किया कोई कार्य पाप ना हो या किसी की आत्मा को कष्ट ना हो जाये जिससे मुझे दंड में नरक भुगतना पड़े | स्वर्ग की लालसा और नरक का भय सभी धार्मिक व्यक्तियों में है, परन्तु फिर भी अपनी सुविधा और आवश्यकता को पूरी करने के लिए व्यक्ति धर्म(नियम) की उलंघना करता है | सही मार्ग से व्यक्ति का मन नहीं भटके इसीलिए ही सभी को एक सच्चे और निस्वार्थी गुरु की आवश्यकता है |

🌺सभी व्यक्तियों को धर्म में यह बताया जाता है कि मनुष्य का जन्म चौरासी लाख प्रकार के जन्मो के बाद मिलता है मनुष्य जन्म में जो भी पाप किये होते है उसके बदले चौरासी लाख प्रकार के जीव जंतुओं के जन्म मिलते है । केवल गुरु इस बात का ज्ञान देता है कि जब पिछले मनुष्य जन्म के पापों के बदले चौरासी लाख प्रकार के जन्मो का भुगतान कर लिया है तभी यह जन्म मिला है तो मनुष्य बनते ही अपने आप को पिछले जन्मो के कर्मो का पापी मानना मूर्खता व कायरता है और संसार में भयभीत होकर नहीं भयमुक्त होकर रहना है |
गुरु द्वारा यह भी समझाया जाता है कि सांसारिक जीवन के लिए धर्म अच्छा है, यदि व्यक्ति धर्म से चलेगा तो किसी के साथ कोई छल-कपट नहीं करेगा जिससे पापकर्म कम बनेंगे और उसके जीवन में कर्मफल से आने वाली समस्याओं का अवसर कम होगा, परन्तु धर्म निराकार को समझने के लिए नहीं है । निराकार को तभी जान सकते है जब सभी सांसारिक वस्तुओं, संबंधों, आदतों, भावनाओं, कर्मों को छोड़ कर शून्य की अवस्था आयेगी । निराकार का धर्म से कोई लेना देना नहीं है, धर्म मनुष्य ने बनाया है जिससे आत्मा और शरीर को  नियम में चलने का अभ्यास बना रहे । संसार में साकार (दिखने वाला सभी कुछ) से सम्बंधित नियम धर्म है और किसी कर्म, वस्तु, व्यक्ति, नियम पर निर्भर रहे बिना निराकार से जुड़े रहना आध्यात्म है । धर्म में स्थान, समय, नियम, व्यक्ति इत्यादि को महत्त्व दिया जाता है जबकि आध्यात्म में किसी भी व्यक्ति, स्थान, वस्तु और नियम का कोई महत्त्व नहीं है, शून्य को समझना और शून्य होना ही आध्यात्म है । धर्म और आध्यात्म में यही अंतर है कि धर्म भययुक्त है और आध्यात्म भयमुक्त है, व्यक्ति ने धार्मिक बनना है या अध्यात्मिक बनना है यह उसकी स्वयं की इच्छा और उसे ज्ञान देने वाले गुरु पर निर्भर करता है । केवल गुरु की शरण में रह कर ही यह सीखा जा सकता है कि धर्म की बैसाखी का सहारा लेकर निराकार को समझना असंभव है क्योकि धर्म का त्याग करके ही आध्यात्मिक बना जा सकता है ।

🌺ऐसा ज्ञान एक सच्चे गुरु द्वारा ही मिलता है कि कर्मों की पूँजी केवल आत्मा बनती है शरीर से कोई कर्म नहीं बनता और उनके फल शरीर द्वारा भोगे जाते है, वह शरीर मनुष्य का हो या किसी जीव जंतु का हो शरीर भोगने के लिए है जबकि प्राय: यह कहा जाता है कि व्यक्ति शरीर से जो भी करता है उसी का फल भुगतना पड़ता है |  धार्मिक स्थान पर जाकर भी व्यक्ति की आत्मा (ध्यान/विचार) घर पर है तो वहां जाने का कोई लाभ नहीं है बिना आत्मा के कर्म करना शरीर को कष्ट देना है | पिछले मनुष्य जन्म के पाप भी व्यक्ति ने चौरासी लाख प्रकार के जन्म लेकर ही भोगे थे तो आज व्यक्ति किस बात से डरता है । आज प्रत्येक व्यकि अपनी क्षमता और उपलब्धता के अनुसार भ्रम और भय से मुक्ति की खोज में लगा हुआ है परन्तु भ्रम और भय से  मुक्ति तभी हो सकती है जब व्यक्ति के पास ऐसा गुरु हो जो उसे सही ज्ञान द्वारा अन्धविश्वास और सुविधा या दूसरों से लाभ लेने के लिए बनी मान्यताओं से मुक्त कर सके |

🌺धर्म संसार के लिए है मनुष्य ने अपनी सुविधा के लिए अलग अलग धर्म बनाये है, इसमें व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक धर्म है, इन धर्मों का पालन कैसे करना है यह सिखाना गुरु का कार्य है | आध्यात्म आत्मा के लिए है आत्मा द्वारा किए कर्म का फल कैसा मिलता है और उससे कैसा बचा जा सकता है या बताना और समझाना भी गुरु का ही कार्य है | धर्म और अध्यात्मिक में व्यक्ति का मस्तिष्क बहुत अधिक उलझ चुका है इसलिए वह सही और गलत का निर्णय करने में सक्षम नहीं है इसी कारण उसके मन में अनेकों प्रश्न है जैसे : गुरु की आवश्यकता क्यों है ? गुरु का क्या कार्य है ? गुरु कैसा होना चाहिए ? गुरु कब और कहाँ मिलेगा ? गुरु की पहचान क्या है ? गुरु की महिमा देवी देवताओं से अधिक क्यों है ? गुरु के बिना गति क्यों नहीं है ? इत्यादि |

🌺व्यक्ति के दैनिक जीवन में बहुत सारी ऐसी समस्याएं और परिस्थितियां आती है जिनके समाधान या मार्गदर्शन के लिए उसे एकदम सही उत्तर की आवश्यकता होती है हालांकि अधिकतर उत्तर व्यक्ति को स्वयं पता होते है फिर भी भ्रम और भय की स्थिति में व्यक्ति को किसी ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता होती है जिस पर ईश्वर की कृपा हो, जिसके पास कर्म और कर्मफल को बदलने/बदलवाने का अधिकार हो, जिसे सांसारिक और अध्यात्मिक ज्ञान हो, जिसका अपना कोई स्वार्थ नहीं हो, जो भूतकाल से भविष्यकाल तक को देख सकता हो और उसी अनुसार निस्वार्थ(बिना लालच) ऐसी युति(गुर) सिखाये जिससे उसकी सभी समस्याओं और परिस्थियों पर विजय हो जाए | सच्चा और पूर्ण गुरु वही है जो अपने शिष्य को ऐसी युति(ऐसा गुर) सिखाये जो उसे साकार संसार में और देह छोड़ने के बाद के रहस्मयी संसार में काम आयें |

🌺गुरु की पहचान🌺

गुरु कही भी मिल सकता है, यह आवश्यक नहीं है कि गुरु किसी विशेष वेशभूषा में ही होगा, वेशभूषा का प्रयोग निजी लाभ के लिए मूर्ख बनाने या दिशाहीन करने में भी किया जा सकता है सच्चे गुरु को वेशभूषा या दिखावे में कोई रुचि नहीं होती, ना ही वह अपनी प्रशंसा सुनने का इच्छुक होता है | साधू की वेशभूषा भगवा रंग की होती है इसका अर्थ यह नहीं है कि भगवा पहनने वाले सारे लोग साधू विचारों के होते है इनमे स्वार्थी और कपटी लोग भी हो सकते है | साधू का भगवा रंग धारण करने के पीछे गूढ़ वैज्ञानिक कारण है जिसका स्वयं साधुओं को भी पता नहीं है | सूर्य का रंग भगवा है, प्रात:काल सूर्य उदय होने पर परिवार के सदस्य एक-दूसरे से दूर होने लगते है पति-पत्नी अपनी आजीविका के लिए और बच्चे शिक्षा इत्यादि के लिए बाहर जाते है | सूर्य अस्त के बाद परिवार फिर से घर में एकत्रित हो जाता है, इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि सूर्य पारिवारिक सुख से वंचित करता है साधू के भगवा पहनने का अर्थ यह है कि इस व्यक्ति ने पारिवारिक सुखों का त्याग करके भगवा धारण कर लिया है और अब पारिवारिक जीवन नहीं चाहता, बाकि का जीवन सांसारिक वस्तुओं और लोगो से दूर रहेगा | प्राय: लोग आशीर्वाद पाने के लिए साधू को आवश्यकता से अधिक सुविधा उपलब्ध करा कर उनका मन भटकाते है, सुख सुविधा को देखकर सच्चे साधू का मन भी संसार की और आकर्षित होने लगता है,  ऐसा करके वह लोग अपने पाप कर्म की पूँजी जमा करते है क्योंकि सुविधाओं को भोगने पर साधू अपने लक्ष्य से भटक कर निराकार से दूर हो जाता है |

🌺सच्चे गुरु की पहचान का पहला लक्षण यह है कि गुरु किसी वेशभूषा या ढोंग के अधीन नहीं है और उसके चेहरे पर सूर्य के सामान तेज दिखता है और उसकी छठी इंद्री पूर्णत: विकसित होती है जिसके द्वारा वह भूत, वर्तमान और भविष्य को देख पाता है | सच्चा गुरु ज्ञान देने में प्रसन्न होता है ज्ञान को छुपाने वाला या भ्रमित करने वाला सच्चा गुरु नहीं होता | यह बात भी सभी जानते है कि संसार में जीवित रहने के लिए धन की आवश्यकता है, अकारण आवश्यकता से अधिक धन का मांगना गुरु के लालची और स्वार्थी होने का चिन्ह है , गुरु को स्वार्थी होने का अधिकार नहीं है स्वार्थ संसार के लिए है अध्यात्म में स्वार्थ का त्याग होना अति आवश्यक है जिसका सही ज्ञान सच्चे गुरु द्वारा ही मिलता है |

🌺किसी व्यक्ति में गुरु वाले गुण होने के लिए अच्छे कर्मों की पूँजी होना अति आवश्यक है और जब अच्छे कर्मों की पूँजी गुरु के खाते में है तो उसे धन और अन्य सांसारिक वस्तुओं के पीछे भागने की आवश्यकता नहीं होती बल्कि अच्छे कर्मों के प्रभाव से उसकी आवश्यकता के अनुसार वस्तुएँ गुरु तक अपने आप पहुँचती है | जब कर्मों की पूँजी होती है तो व्यक्ति में इतना संतोष और नम्रता आ जाती है कि धन की पूँजी के लिए मन विचलित नहीं होता | गुरु कहलाने के बाद गुरु का यह दायित्व है कि वह अपने शिष्यों और साधारण व्यक्तियों का सही मार्गदर्शन करे यदि गुरु ज्ञान का प्रयोग धन अर्जित करने या किसी निजी स्वार्थ के लिए करता है तो गुरु के लिए क्षमा नहीं होती और उसे साधारण व्यक्ति से सौ गुना अधिक दंड भोगना पड़ता है क्योंकि गुरु को पाप-पुण्य का ज्ञान होता है | साधारण व्यक्ति के गलती करने पर उसके लिए क्षमा का अवसर और विकल्प है परन्तु गुरु जिसे धर्म और आध्यात्म दोनों की समझ है उसके लिए साधारण व्यक्ति से कही अधिक दंड भुगतना पड़ता है क्योंकि उसके पास साधारण व्यक्ति से अधिक ज्ञान है |

🌺गुरु अपने शिष्य को धर्म(सांसारिक नियम) और आध्यात्म(निराकार), दोनों का अंतर और निराकार को समझने का सरल मार्ग भी बताता है, अधिकतर लोग स्वयं को धार्मिक और आध्यात्मिक दोनों समझते है जबकि ऐसा नहीं है | धर्म नियम है जो स्वयं और संसार को व्यवस्थित करने में सहायक होता है, धर्म संसार के लिए है सभी संबंधों के लिए अलग अलग धर्म(नियम) है जैसे गुरुधर्म, शिष्यधर्म, पिताधर्म, माताधर्म, भाईधर्म, बहनधर्म, मित्रधर्म, राजधर्म, मंत्रीधर्म, नागरिकधर्म, इत्यादि इत्यादि |  धर्म (नियम) बहुत सारे है इसलिए व्यक्ति आवश्यकता और विवशता के कारण अपनी सुविधा के अनुसार नियमों और अपनी मान्यताओं को समय समय पर बदलता रहता है जबकि आध्यात्म सभी संबंधों, नियमों से मुक्त होकर निराकार का ज्ञान होने की अवस्था है आध्यात्म का सम्बन्ध आत्मा से है इसलिए इसमें कोई नियम नहीं है, ना ही इसमें कही कोई असुविधा है कि इसको बदलने की आवश्यकता पड़े |

🌺गुरु केवल देने(दूसरो) के लिए है गुरु द्वारा वचन और कर्म व्यक्ति के कल्याण में काम आते है, अपने लिए लेने वाला गुरु नहीं होता, गुरु जिसे सांसारिक वस्तुओं की चाह नहीं होती, गुरु का सम्बन्ध आत्मा से है शरीर से नहीं, जो धन और जाति के कारण भेदभाव नहीं करता | गुरु जो प्रत्येक शिष्य की प्रेम, विश्वास और लगन के अनुसार उसके अध्यात्मिक स्तर को बढाने में सही मार्गदर्शन करता है | गुरु शिष्य के लिए जो कुछ भी करता है उसे कभी भी जतलाता नहीं है, ना ही अपने शिष्य द्वारा प्राप्त किए धन, मन-सम्मान, अध्यात्मिक स्तर का श्रेय लेता है | गुरु अपने शिष्य से ऐसे कर्म करवाता है जो केवल शिष्य हित में होते है, गुरु काअपने  शिष्य के कर्म निजी लाभ के लिए प्रयोग करना वर्जित है |  गुरु की महिमा देवी देवताओं से अधिक है क्योंकि देवी देवता सीमित शक्ति/ कला के मालिक है, जिस व्यक्ति को जैसा चाहिए वह उस शक्ति/ वस्तु के मालिक देवी देवता की उपासना करके अर्जित कर लेता है जबकि गुरु सीधा निराकार से जुड़ा होने के कारण सभी कुछ ठीक प्राप्त करने में सहायक बनता है | साधारण व्यक्ति भी अपने अच्छे कर्मों और निस्वार्थ भावना से गुरु बन सकता है परन्तु यदि शिष्य का लक्ष्य गुरु बनना है तो वह अधूरा गुरु ही बन पता है वह पूरा गुरु नहीं बन सकता | पूरा गुरु का अर्थ है जो निस्वार्थ सब कुछ कर सकता है |

🌺ईश्वर की कृपा और अपने कर्मो की पूँजी के अनुसार गुरु की शक्तियां अपने आप विकसित होने लगती है आध्यात्मिक स्तर बढ़ने के साथ साथ इन शक्तियों का विकास भी होता रहता है, सबसे पहले गुरु में वाकशक्ति/वाक्यशक्ति विकसित होती है वाक्यशक्ति विकसित होने पर गुरु द्वारा कही गयी सभी बाते पूरी होने लगती है | यहाँ तक की किसी व्यक्ति के भाग्य में ना होने वाली वस्तुएँ गुरु के वाक्य/वचन से मिलने लगती है, अनेकों लोगो की संतान होना या ऐसे कार्य होना जिसकी कल्पना भी ना की जा सकती हो, यह वाक्यशक्ति विकसित हो चुके होने का ही लक्षण है | वाक्यशक्ति के बाद गुरु में स्पर्श शक्ति विकसित होती है गुरु के आगे मस्तक झुकाने का एक कारण यह भी है कि गुरु अपने स्पर्श द्वारा मस्तक झुकाए व्यक्ति की सारी नकारात्मकता समाप्त कर देता है , गुरु के शरीर में जो सकारात्मकता संचार कर रही होती है वह व्यक्ति के शरीर में प्रवेश कर जाती है जिसके परिणाम से ग्रहों का प्रभाव, हानि, दुर्घटना, बुरे कर्मों का फल, शत्रु, बुरी नज़र, भूत-प्रेत इत्यादि से बचाव रहता है |

🌺वाक्यशक्ति और स्पर्शशक्ति का प्रयोग संसार की इच्छाओं की पूर्ती के लिए होता है, लोगों का कल्याण करते करते गुरु में आत्मशक्ति विकसित हो जाती है | आत्मशक्ति संसार के लिए नहीं होती यह अलौकिक शक्ति होती है जो निराकार से जुड़े रहने के काम आती है | किसी चित्र/मूर्ती, नाम/मंत्र, स्थान, विधि इत्यादि पर अधीन ना होकर, खुली आँखों पर भी निराकार से जुड़े रहने की अवस्था को आत्मशक्ति विकसित होना कहते है | आत्मशक्ति का प्रयोग गुरु अपने शिष्यों की परलोक में सहायता करने में करता है | गुरु की मृत्यु के पश्चात, गुरु के स्थान में वह स्पर्शशक्ति और वाक्यशक्ति का प्रभाव रहता है , सच्चे गुरु की मृत्यु के पश्चात उसके स्थान को स्पर्श करने से मन को शांति और सुरक्षा का आभास होता है और वहां पर उच्चारण की जाने वाली सभी बाते पूरी हो जाती है |

🌺वाक्यशक्ति, स्पर्शशक्ति और आत्मशक्ति तीनो होने पर गुरु में त्रिशक्ति होती है जिसके कारण कुछ भी सोचा या कहा गया पूरा होता है, यह त्रिशक्ति देवी देवताओं के पास नहीं होती क्योंकि देवी देवताओं के पास वाक्यशक्ति और स्पर्श्शक्ति को प्रयोग करने के लिए शरीर नहीं होता | देवी देवताओं के पास सीमित अधिकार/ शक्तियां होती है जैसे धन की देवी लक्ष्मी, विद्या  देवी की सरस्वती, ज्ञान के देवता बृहस्पति, इत्यादि देवी देवताओं के पास अलग अलग अधिकार/शक्तियां है | जो कार्य देवी देवताओं की उपासना से भी नहीं हो सकते वह गुरु के एक वाक्य से हो जाते है | इसीलिए कहा जाता है कि गुरु के पास ऐसी चाबी होती है जो हर बंद ताले को खोल सकती है | गुरु की निस्वार्थ भावना के कारणदेवी देवता भी गुरु की कही बात हो नहीं टालते |  जाने अनजाने बहुत से ऐसे कर्म हो जाते है जिसके कारण देवी- देवता, मृत्यु पश्चात भटक रहे पित्र(पूर्वज) और भूत-प्रेत क्रोदित हो जाते है, इन सभी के क्रोध का प्रभाव केवल गुरु के आशीर्वाद और सुदृष्टि से ही समाप्त होता है |

🌺गुरु के पास इच्छा, आवश्यकता या विवशता के समय कर्मों की पूँजी को देने या लेने का अधिकार होता है । किसी व्यक्ति की भक्ति, प्यार, नम्रता, समर्पण इत्यादि से प्रसन्न हो कर भाग्य द्वारा ना मिलने वाली वस्तु को दे देना गुरु की इच्छा पर निर्भर है । सालों बाद किसी गुरु के आशीर्वाद से संतान हो जाना या बीमारी ठीक हो जाना गुरु द्वारा ऐसे कर्म दे देना होता है जो उस व्यक्ति के भाग्य में नहीं होता । किसी व्यक्ति द्वारा अपनी वाणी, भाव इत्यादि द्वारा अपने शुभ कर्मों का दुरूपयोग करने पर गुरु को उसके शुभ कर्मो को लेकर किसी और को देने का अधिकार होता है । सम्पूर्ण गुरु की कृपा या आशीर्वाद से सांसारिक और आध्यात्मिक सभी प्रकार की इच्छाओं को पूर्ण किया जा सकता है । व्यक्ति को समय समय पर गुरु की आवश्यकता इसलिए भी होती है कि गुरु ऐसे गुर सिखाता और बताता है जो पुस्तकों में नहीं मिलते ।

🌺कलयुग गुरुओ से भरा पड़ा है परन्तु सही मार्ग दिखने वाले गुरुओं की कमी है, ऐसे में साधारण व्यक्ति के लिए गुरु का चयन करना अति कठिन है | सच्चा गुरु अपना ज्ञान और शक्ति विकसित करने की युति सरलता से अपने शिष्य/ भक्त को नहीं देता, इसका मुख्य कारण यह होता है कि कहीं शिष्य उस ज्ञान का दुरूपयोग निजी स्वार्थ के लिए ना कर ले | गुरु ज्ञान तभी देता है जब उसे यह निश्चित होता है कि उसका शिष्य इस योग्य है कि ज्ञान का दुरूपयोग नहीं होगा और शिष्य को समझ है कि ज्ञान का सदुपयोग कब कितना और कैसे करना है | शिष्य के इस स्तर को बार बार परखने के बाद ही गुरु अपने शिष्य को ज्ञान देता है | शिष्य की परख करने के लिए गुरु कटु वचनों का प्रयोग भी करता है और शिष्य को कठिन और अस्विकारिय कार्य करने को कहता है, यदि शिष्य बिना प्रश्न और संदेह किए गुरु की कसौटी पर खरा उतरता है तो शिष्य को गुरु द्वारा आशीर्वाद और कृपा में ज्ञान मिलता है, गुरु ऐसा ज्ञान देता है जो पुस्तकों और कहानियों में नहीं होता | ज्ञान ऐसे शिष्य को मिलता है जिसमे ज्ञान अर्जित करने की इच्छा, लगन और योग्यता होती है जिन शिष्यों में योग्यता नहीं होती गुरु उन पर समय नष्ट नहीं करता | योग्यता कर्मों के आधार पर होती है, शिष्य में योग्यता होने पर गुरु उस की उन्नति करने का अवसर नहीं छोड़ता | गुरु द्वारा बताये मार्ग पर सभी शिष्य नहीं चलते, अधिकतर लोग अपनी आवश्यकता, सुविधा और परिस्थिति के अनुसार कार्य करते है , जो लोग गुरुमार्ग पर चलते है उन्हें लोक-परलोक में कोई कष्ट नहीं होता |

🌺गुरु द्वारा शिष्य को दिए जाने वाले ज्ञान से ही गुरु के अपने अध्यात्मिक स्तर का पता चल जाता है कि गुरु स्वयं निराकार से कितना जुड़ा हुआ है और उसमे कितनी योग्यता है, सच्चा गुरु आधा-अधूरा ज्ञान नहीं देता वह अपने शिष्य को पूर्ण ज्ञान देता है | शिष्य की अपनी रुचि और योग्यता के अनुसार उसकी अध्यात्मिक उन्नति करना और उसका सही मार्गदर्शन करना गुरु का मुख्य कार्य है | गुरु अपने शिष्य को मन और मस्तिष्क दोनों को काबू करने का गुर सिखाता है जिससे शिष्य सभी प्रकार की परिस्थितियों में भयभीत, भ्रमित या असहाय ना हो, शिष्य में धैर्य और नम्रता किसी विवशता के कारण नहीं हो अपितु यह उसके स्वभाव में हो, शिष्य में प्रशंसा करने और प्रशंसा सुनने की आदत नहीं हो, शिष्य अपने भाग्य पर निर्भर ना होकर अपने कर्म पर ध्यान दे और उसकी कर्मपूँजी इतनी हो की बिना मांगे ही आवश्यकता के अनुसार उसे सब कुछ अपने आप मिलता जाये, शिष्य संसार में रहते हुए भी किसी सांसारिक वस्तु या व्यक्ति से इतना ना जुड़े कि उसके मोक्ष का मार्ग कठिन हो जाए | सांसारिक ज्ञान तो सभी को होता है परन्तु गुरु सांसारिक विपत्तियों के साथ साथ अध्यात्मिक स्तर को विकसित करता है जिसके कारण शिष्य सदैव अपने गुरु का ऋणी रहता है, इस ऋण से मुक्त होने के लिए शिष्य अपने गुरु को गुरुदक्षिणा देता है | गुरु द्वारा मिला ज्ञान अमूल्य होता है फिर भी शिष्य बड़ी श्रद्धा से गुरु को अपनी सामर्थ्य के अनुसार भेंट देता है, कई बार तो शिष्य अपना शेष जीवन ही गुरु की समर्पित करके स्वयं को धन्य समझते है, आज के समय में ऐसे गुरु और शिष्य दोनों की कमी है |

🌺ज्ञान की प्राप्ति से केवल ज्ञानी बना जा सकता है जबकि गुरु के पास आध्यात्मिक ज्ञान होने के साथ साथ देवी देवताओं का साथ और निराकार की कृपा भी होती है | सांसारिक ज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान में बहुत बड़ा अंतर है, ज्ञानी को आध्यात्म का ज्ञान हो यह आवश्यक नहीं है और गुरु को सांसारिक ज्ञान हो यह भी आवश्यक नहीं है | सांसारिक उन्नति के लिए सांसारिक ज्ञान का होना आवश्यक है और आध्यात्मिक उन्नति के लिए अध्यात्मिक ज्ञान होना चाहिए | कभी कभी ज्ञानी केवल ज्ञान तक सीमित रह जाते है क्योंकि उनके पास वो कृपा नहीं होती जिससे वो निराकार के रहस्य को समझ सके | आवश्यकता से अधिक ज्ञान भ्रम का कार्य करता है जो व्यक्ति को निराकार और उसकी कृपा से वंचित रखता है | गुरु के पास कृपा नामक वो चाबी होती है जिससे कोई भी सांसारिक या अध्यात्मिक ताला खुल सकता है | यदि गुरु चाहे तो अपने शिष्य को वह दिव्य चाबी पाने के योग्य बनने का मार्ग बता सकता है | समस्या तब आती है जब व्यक्ति स्वयं ही वह चाबी खोजने या बनाने का प्रयत्न करता है क्योंकि निराकार का नियम है कि कृपा रूपी चाबी केवल गुरु के द्वारा ही मिलती है | आधा अधूरा ज्ञान अंधकार के सामान है जो व्यक्ति को और भ्रमित करता है, ऐसे में कृपा और आशीर्वाद प्रकाश का कार्य करते है | गुरु कितना भी ज्ञान दे वो कम समझना चाहिए क्योंकि जो इतना दे सकता है उसके स्वयं पर कितनी और अधिक ईश्वरीय कृपा होगी | कभी भी यह नहीं समझना चाहिए कि मुझे गुरु ने सारा ज्ञान दे दिया और मुझ पर भी गुरु जितनी ही कृपा हो गयी है |

🌺गुरु द्वारा एक गुप्त ज्ञान यह भी दिया जाता है कि निराकार की कृपा कभी भी दो लोगो पर एक सामान नहीं होती, संसार में दिखने वाला सभी कुछ एक दुसरे से भिन्न है जैसे पहाड़, नदिया, पेड़ पौडे, जीव जंतु इत्यादि | निराकार के स्वभाव में नक़ल करना नहीं है, एक बार जो बन गया वह दोबारा नहीं बनता, मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो दूसरों को देख कर आकर्षित होता है और नक़ल करने को विवश हो जाता है |

🌺गुरु और शिष्य का अटूट सम्बन्ध है जो एक बार स्थापित हो जाये तो फिर कई जन्मों तक चलता है, जिस शिष्य के कर्म बहुत अधिक बलवान हों और उन कर्मो का फल अपने आप मिलना हो तो ऐसे शिष्य को ज्ञान देने गुरु स्वयं शिष्य के पास जाते है, जबकि साधारण कर्मों वाले शिष्यों को गुरु की खोज करनी पड़ती है | शिष्य कई प्रकार के होते है इनमे भक्त शिष्य होते है जो गुरु से दूर रहे या पास रहे इनके मन में गुरु के लिए श्रद्धा और भक्ति होती है, ये गुरु के वचनों पर चलना और गुरु की सेवा करके अपना जीवन बिताने को ही सब कुछ मानते है और अपना तन, मन, धन गुरु के लिए लगा देते है, गुरु के साथ या पास रहकर इन्हें अलौकिक आनंद की अनुभूति होती है | ऐसे शिष्यों से गुरु को आत्मिक प्रेम होता है |

🌺कुछ शिष्य चतुर होते है, उन्हें गुरु की याद तभी आती है जब जीवन में कोई समस्या या दुःख हो, काम निकलने पर ऐसे शिष्य गुरु से दूर रहना ही पसंद करते है ऐसे शिष्य सांसारिक सुख सुविधाओं के लिए ही जीते है उन्हें मोक्ष या निराकार में कोई रुचि नहीं होती, ये समझते है कि गुरु थोड़ी सी सेवा करने में ही इनका कल्याण हो जायेगा क्योंकि गुरु ने अपने स्वार्थ के लिए नहीं इनके लिए जन्म लिया है | ऐसे शिष्यों को गुरु केवल सांसारिक वस्तुओं को पाने का मार्ग बताते है |

🌺कुछ अन्य शिष्य ज्ञानी होते है हालाँकि इनकी गिनती बहुत कम होती है जो गुरु की  को समझते है, जिनको यह ज्ञान होता है कि गुरु के क्रोध या डांट, फटकार में भी उनका क्या लाभ है, ऐसे शिष्य यह जानते है कि गुरु अपने क्रोध या फटकार द्वारा उनके जाने अनजाने हो गए कुकर्मों का प्रभाव समाप्त करने में उनकी सहायता करके उनमे और अधिक अध्यात्मिक विकास होने की योग्यता बना रहे है । ऐसे शिष्यों के अध्यात्मिक विकास के लिए गुरु उन पर अधिक मेहनत करता है |

🌺मोक्ष प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को निराकार का ज्ञान होना आवश्यक है और निराकार का ज्ञान होने के लिए व्यक्ति का अध्यात्मिक होना आवश्यक है, आध्यात्मिक होने के लिए पूर्ण गुरु का आशीर्वाद और कृपा होनी अति आवश्यक है |
मेरे विचार 

मोक्ष का ज्ञान तभी हो सकता है जब आत्मा के जन्म का ज्ञान हो |

संसारज्ञान – जीवन से मृत्यु का ज्ञान है और निराकारज्ञान – मृत्यु से जीवन का ज्ञान है |
सच को नहीं झूठ को खोजने का प्रयास करो, यदि झूठ का ज्ञान हो गया तो निराकार का ज्ञान अपने आप हो जाएगा |

जीवन में परिवर्तन चाहते हो तो क्या करना है पर नहीं,  क्या नहीं करना है पर अधिक ध्यान दो |
संसार का सबसे बड़ा अंधविश्वास है की निराकार किसी साकार रूप में मिलेगा 
संसार का सबसे कठिन कार्य अपने मन को समझाना है |
अपने मन को सीखने और खोजने में इतना व्यस्त कर दो कि इसे पाप करने का समय या अवसर ही ना मिले |
अपने मन को इतना टिकाओ कि आँखे खुली होने पर भी ध्यान निराकार में लगा हो |
किसी का मन भटकाना ऐसा पाप है जिसका कोई प्रायश्चित नहीं है |
जो भाग्य में है उसके पीछे भागने की आवश्यकता नहीं है और जो भाग्य में नहीं है उसके पीछे भागने का कोई लाभ नहीं है |
कर्मपूँजी इतनी हो कि बिना मांगे ही सब कुछ मिल सकता हो परन्तु कुछ मांगने की आवश्यकता ना हो |
ईर्ष्या से मुक्त होने के लिए दूसरों के कर्मों पर ध्यान मत दो |
स्वयं की प्रशंसा सुनना, अहंकार को निमंत्रण देना है |
धार्मिक से अध्यात्मिक होने में कई जन्म लगते है, अपनाना धर्म है और त्यागना आध्यात्म है |
ज्ञान होने और कृपा होना दोनों में बड़ा अंतर है |
उस वस्तु के पीछे मत भागो जिसके बिना गुज़ारा चलता है |
सच्चा गुरु वह है जो गुर सिखाए, और सच्चा शिष्य वह है जो गुरु ना बनना चाहे 
किसी के आध्यात्मिक ज्ञान से उसके गुरु के स्तर का पता चलता है |
गुरु के पास वह मास्टर चाबी होती है जो देवी देवताओं के पास भी नहीं होती |
बातें आना और निराकार का ज्ञान होना दोनों में बड़ा अंतर है |
भ्रम और भय से मुक्ति केवल ज्ञान द्वारा होती है |
सही मार्ग दिखाने से बढकर कोई पुण्य नहीं है |
कोई भी कर्म सही या गलत नहीं होता, सही या गलत होते है कर्म के परिणाम 

हे सदगुरुदेव जी  ! मुझे शून्य कर दो, जिसके साथ भी लगूं वह दस गुना बढ़ जाए |

Saturday, February 6, 2021

षटतिला एकादशी व्रत कथा

https://youtu.be/hjcdZdAKF5c
षटतिला एकादशी व्रत कथा  ।
जय जय श्री राधे कृष्ण। 
हेमन्त कुमार शर्मा ।


षटतिला एकादशी व्रत कथा 
एक समय दालम्भ ऋषि ने पुलस्त्य ऋषि से पूछा , है मुनीश्वर मनुष्य मृत्यु लोक में ब्रम्ह हत्या आदि पाप करते है और दूसरों के धन की चोरी करते है तथा दूसरे की उन्नति देखकर इर्ष्या आदि करते है परंतु फिर भी उनको नर्क प्राप्त नही होता सो क्या कारण है ? वह ना जाने कौनसा अल्पदान या अल्प परिश्रम करते है जिनसे उनके पाप नष्ट हो जाते है । यह सब आप कृपा पूर्वक कहिये । इस पर पुलस्त्य महात्मा  बोले ,मुनि आपने  मुझसे अत्यंत गंभीर प्रश्न पूछा है ।
इसे संसारी जनों को बहुत लाभ होगा । इसको इंद्र आदि देव भी नहीं जानते परंतु मैं आपको यह गुप्त भेद अवश्य ही बताता हूं  ।माघ मास के आने पर मनुष्य को स्नान आदि से शुद्ध रहना चाहिए और इंद्रियों को वश में करके तथा काम क्रोध लोभ मोह ईर्ष्या अभिमान आदि का स्मरण नहीं करना चाहिए । उसको हाथ पैर धो कर पुष्य नक्षत्र में गोबर कपास तेल मिलाकर उपले बनाना चाहिए । उन कारणों से 108 बार हवन करें और यदि उस दिन मूल नक्षत्र हो और द्वादशी हो तो नियम से रहे । स्नान आदि नित्य क्रिया से शुद्ध होकर भगवान का पूजन कीर्तन करना चाहिए । एकादशी के दिन व्रत करें और रात्रि को जागरण तथा हवन करें  ।उस के दूसरे दिन धूप, दीप, नैवेद्य से भगवान की पूजा करें और खिचड़ी का भोग लगाना चाहिए । उस दिन कृष्ण भगवान का पूजन करना चाहिए । उनको पेठा, नारियल ,सीताफल या सुपारी सहित अर्ध देना चाहिए और फिर उनकी स्थिति इस प्रकार करनी चाहिए । हे भगवान आप अशरणो  को शरण देने वाले हैं ,आप संसार में डूबे हुए का उद्धार करने वाले हैं ,हे पुंडरीकाक्ष,हे कमल नेत्र धारी ,हे विश्व भगवान, हे जगद्गुरु आप लक्ष्मी जी सहित मेरे इस तुच्छ अर्ध्य को स्वीकार कीजिए । इसके पश्चात ब्राह्मण को तिल दान करना चाहिए ।
इस प्रकार मनुष्य जितने तिल दान करता है उतने ही सहस्त्र वर्ष स्वर्ग में निवास करता है ।
1 तिल स्नान 2 तिल की उबटन 3 तिलोदक 4 तिल का हवन 5 तिल का भोजन 6 तिल का दान ,यह षटतिला कहलाती है । इससे अनेक प्रकार के पाप दूर हो जाते है ।  एक दिन नारद ऋषि बोले ,हे भगवान आपको नमस्कार है । इस षटतिला एकादशी को क्या पुण्य होता है और उनकी क्या कथा है सो कृपा पूर्वक कहिए ।
श्री कृष्ण भगवान बोले हे नारद मैं तुमसे आंखों देखी सत्य घटना कहता हूं ध्यानपूर्वक सुनो  ।प्राचीन समय में मृत्यु लोक में एक ब्राह्मण रहती थी । वह सदैव व्रत किया करती थी । एक समय वह 1 माह तक व्रत करती रही । इससे उसका शरीर अत्यंत दुर्बल हो गया । वह अत्यंत बुद्धिमान थी परंतु फिर भी उसने कभी भी देवताओं तथा व्रतों से अपना मन अस्थिर नहीं किया  ।इस प्रकार मैंने सोचा कि ब्राह्मणी ने व्रत आदि से अपना शरीर शुद्ध कर लिया है और इसको वैष्णव लोक भी मिल जाएगा  ।परंतु इस ने कभी अन्नदान  नहीं किया है । इससे इसकी तृप्ति होना कठिन है । ऐसा सोचकर में मृत्यु लोक में गया और उस ब्राह्मणी से अन्न  मांगा । वह बोली हे महाराज आप यहां किसलिए आए हैं  ।मैंने कहा मुझे भिक्षा चाहिए  ।इस पर उसने मुझे एक मिट्टी का पिंड दे दिया । मैं उसे लेकर स्वर्ग लौट आया  । कुछ समय बीतने पर वह ब्रह्माणी भी शरीर त्याग कर स्वर्ग  ।आई मृत पिंड  के प्रभाव से उसे उस जगह एक आम वृक्ष सहित ग्रह मिला । परंतु उसने ग्रह की अन्य वस्तुओं से शून्य पाया । वह घबराई हुई मेरे पास आई और कहने लगी, हे भगवान मैंने अनेकों व्रत आदि से आपकी पूजा की है परंतु फिर भी मेरा घर वस्तुओं से रहित है सो क्या कारण है ?  मैंने कहा तुम अपने ग्रह को जाओ और देव स्त्रियां तुम्हें देखने आएंगी । जब तुम उनसे षटतिला एकादशी का पुण्य और विधि सुन लो तब ही द्वार खोलना ।
भगवान के ऐसे वचन सुनकर वह अपने घर को गई और जब देवी स्त्रियां आई और द्वार खुलवाने लगी तब वह ब्रह्माणी बोली कि यदि आप मुझे देखने आई हैं तो षटतिला एकादशी का महत्व कहिए । उनमें से एक देवी स्त्री बोली सुनो मैं कहती हूं  ।जब उसने षटतिला एकादशी का महत्व सुना दिया तब उसने द्वार खोला । देव स्त्रियों ने उसको सब स्त्रियों से अलग पाया  ।उस ब्रह्माणी ने भी देव स्त्रियों के कहे अनुसार षटतिला  का व्रत किया और इसके प्रभाव से उसका ग्रह धन-धान्य से भरपूर हो गया  ।अतः मनुष्य को मूर्खता त्याग कर षटतिला एकादशी का व्रत करना चाहिए । इससे मनुष्य को जन्म जन्म में आरोग्यता प्राप्त हो जाती है  ।इस व्रत से मनुष्य के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।
जय जय श्री कृष्ण  ।
धन्यवाद। 
हेमन्त कुमार शर्मा ।